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उसकी गली में.....

गली के एक कोने में
घर था उसका ....

मेरे घर से
फासला था
क़दम -दो- क़दम
भर का...

इन दो कदमों के दरम्यां
थी रस्मे - रवायतें...
बेड़ियाँ....
हथकड़ियां....
या यूं कहें
कि तमाम दुनिया....

मुझसे मतलब नहीं था उसका
मुझे देखकर अक्सर
मुंह फेर लेती थी.

उसका राब्ता तो
मेरी नज़रों से था,
दीद से दीद को
सलाम कहती थी.

उसके नाज़ुक लब
जब चूमते थे पंखुड़ियों को...
पंखुड़ियां पंखुड़ियों को
डंस लेती थी...

देखकर ज़ख़्मी लाल लबों को....
नाम मेरा ले
सखियाँ ताने कसती थी.

अक्सर कानाफूसी
छतें लांघकर
आ जाती थी मेरे दर...

हवा की दीवार पर
कान लगाकर
सरगोशियों से चुनता था
अपने नाम को ही
मैं अक्सर...

फिर जोड़कर दो नामों को
इश्क का हिसाब लगाता था.
हरबार .FLAME में बच जाता था L
हरबार दुनिया को दरम्यां पाता था.

उम्र गुज़र गयी
परछाईयों के घटने - बढ़ने में...
उम्र गुज़र गयी ...
रेत का सुराख से सरकने में...

बरसों बाद फिर लौटा हूँ
मैं गली में उसकी
नज़रें मेरी टटोल रहीं हैं
हर खिड़की..

वो अक्सर अपनी एक जोड़ी आँखें'
खिड़कियों पर रख देती थी.

उन एक जोड़ी आँखों के लिए
जो हर वक़्त...बेसब्र रहती थी.

दीवारों में कान तो है.
गज़ भर लम्बी ज़ुबान तो है

खिड़कियाँ भी ज़ब्त हैं
इनकी ज़द में.
दो नज़रें तलाश रहा हूँ
मैं उनकी हर हरकत में.

लेकिन कहीं भी उसका...कोई पता नहीं है.
जाना पहचाना कोई दरवाज़ा खुला नहीं है.
लौट रहा हूँ मैं अब ये सोचकर फ़कीर...
क्या बैठना उस मस्जिद में जहाँ ख़ुदा नहीं है....
क्या बैठना उस मस्जिद में जहाँ ख़ुदा नहीं है....

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