दो चराग़ थे ज़िन्दगी-सी अँधेरी रात में दो चराग़ थे शब-दर-शब जलते रहते मचलते रहते बूँद-दर-बूँद पिघलते रहते सर पर लौ सवार थी और बदन था अपने ही काले साये के घेरे में ख़ुद से ही टकरा जाते दोनों उस घुप्प सियाह अँधेरे में जब भी अँधेरा खंगालते ख़ुद को ही खोते ख़ुद को ही पाते अंधे हाथों के हाथ लगती थी सिर्फ़ तन्हाई रूह तलक फैली जिस्म से भी लम्बी अपनी ही परछाई फिर किसी दिन किसी ने रख दिया उन्हें एक-दूसरे की ज़द में पल भर में ही जिस्म रोशन हो गए दोनों चराग एक-दूसरे के दरपन हो गए पहला चराग़ दूसरे को अपने रोशन बाहों में भरने लगा कान के क़रीब जाकर मोम से मुलायम लहजे में कहने लगा "अब देखो चराग़ तले अँधेरा नहीं है सब तुमसे है मुझमें कुछ मेरा नहीं है"