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Showing posts from May, 2016
इस ज़मीन को खुद में बसाने लगा है . वो छोटा बच्चा मिटटी खाने लगा है . कुछ लोग घर को रेत कर गए थे , वो पागल रेत से घर बनाने लगा है . बुश - लादेन , इज़रायल - फलस्तीन हमसफ़र हैं , वो   अख़बारी काग़ज़  के जहाज़ उड़ाने लगा है . इक तरफ इंसान बंट रहे हैं ज़ात ओ मज़हब में , इक तरफ वो आटे में बेसन मिलाने लगा है . गिरो , उठो , धूल झाड़ो , फिर बढ़ो , वो हमें चलने का सलीका सिखाने लगा है . कहीं बचपन को लग जाए न तजर्बे की नज़र , यह फ़िक़्र ऐ फ़क़ीर मुझे सताने लगा है .
जो दो आँखों में दो-दो जहां की ख़्वाहिश लिए चलता है  वो बूंद है जो ख़ुद में समंदर की गुंजाइश लिए चलता है

मंटो तुम मर जाओ

मंटो तुम्हें बुरी लत है लिबास उतार देने की पर नंगी जिस्मों पर लिबास ही कब था  तुम उधेर रहे हो खाल परत दर परत समाज की फट रही हैं नसें लहू जिस्म बनता जा रहा है लहू ढँक लेगा बदन लहू बन जाएगा कफन लाश पड़ी है 'आज' की मंटो तुम मरे नहीं हो लफ्ज़ दर लफ्ज़ मार रहे हो क़ातिल हो तुम उस क़ातिल से ज़्यादा जिसके हाथ में खंज़र था तुम ज़िंदा करते हो मुझे हर कहानी में अपनी ज़ुबानी में अपने मुताबिक बिछाकर चूहेदान बना के शाहदोले का चूहा लेकर फितरत बाज की मंटो क्या ये कोई बात है कि तुम हर शख्स को कर दो टोबा टेक सिंह या फिर बारिश में भीगा ज़ख़्मी सर पे ज़ख्म उठाए टिटवाल के कुत्ते सा जिसकी जीभ पहुँच नहीं रही ज़ख्म तक जिसके ज़ख्म से आ रही है बू छटपटा रहा है मरने के लिए छोड़ दिया तुमने जिसे अधूरा ताउम्र ऐसे ही सड़ने के लिए या फिर सिर्फ एक अदद ठन्डे गोश्त के लिए तुम खोल दो महमूदा, राधा, मैडम डीकोस्टा की काली सलवार सौ कैंडल पावर के बल्ब की कुलबुलाती रौशनी में... समाज उस जिस्मफरोश के आईने में… जिसकी जिस्म की तमन्ना थी उसे जिसकी खाल उधेर देना चाहता था वो ज