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Showing posts from March, 2014

तुम्हें याद हो कि न याद हो

वो जो एक दरख्त था                      जिसकी मीठी छांव ओढ़कर एक तन्हा तीखी दोपहर साथ देखते रहे डाल - डाल चढ़ते हुए ख़्वाबों को पाते बुलंदियां सर झुकाये आज भी याद करता है तुम्हें तुम्हें याद हो कि न याद हो ----------- 1. वो जो एक झील थी जिसके ठहरे शीशे में कभी हम देखते थे आईना पानी के ऊपर थी बनी तस्वीर इक तिरी-मिरी रात को थाली सी सजी जो परोसती थी पूनम का चाँद कल-कल की ज़ुबान में पुकारती रहती है तुम्हें तुम्हें याद हो कि न याद हो ----------- 2. हवेली की वो बूढी सी छत बेवा सी अकेली सी छत छुपा लेती थी हमें हिफ़ाज़त की आगोश में सीढ़ियां बताती थी जिसकी आ रहा है इधर कोई वो सीढ़ियां कब से ख़ामोश हैं काश फिर देख पाती तुम्हें तुम्हें याद हो कि न याद हो ----------- 3. * दरख्त – TREE  **(मोमिन सा'ब का एक मिसरा उड़ाया है)