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Showing posts from May, 2015

REVISED

माना कि फूलों की ज़ुबान क़तर जाएंगे खुशबू के शोर से बचकर किधर जाएंगे क्यों नहीं करते सामना वो आईने का उस अजनबी को देखेंगे तो डर जाएंगे वो परिंदा फिर न उड़ सकेगा *आईंदा जो पेट की सुनेगा तो उसके पर जाएंगे शेख की नसीहत 'सुकूं मिलेगा मस्जिद जा' करें जो मस्जिद का रुख तो तेरे घर जाएंगे उन पर इल्ज़ाम कैसे लगाओगे मियाँ नज़रों से कहके जुबां से *मुकर जाएंगे राम -ओ- रहीम तेरे एक घर के झगड़े में कितने बदनसीबों के घोंसले बिखर जाएंगे बुलंदी है शुरुआत गिरने की फ़क़ीर सर पर चढ़ेंगे तो नज़रों से उतर जाएंगे
जिस शजर की हवाओं से पाती हैं ज़िन्दगी ये पतंगें उन्हीं से लटक कर करेंगी कभी ख़ुदकुशी ये पतंगें तजर्बे का है हुनर उड़ना हवा के साथ मासूमियत  का  है  फ़न बरख़िलाफ़ उड़ती ये पतंगें छोटू के कॉपी के पन्नो को लग गया है पर इल्म को दे रही हैं नयी उरूज़ -ए- बुलंदी ये पतंगें आसमां की बंजर ज़मीन को बना दें ये आशियाँ आती रुतों  के  रंगीन गुलों  सी खिलती  ये पतंगें तजुर्बे के आसमान में उड़ रही हैं मिसाइलें मासूमियत  के  आसमान  में   हैं  उड़ती  ये पतंगें पर से कब हैं उड़ते, उड़ाते हैं हौसले सीखा  गयी  फ़क़ीर  बेपर  परवाज़  भरती ये पतंगें