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Showing posts from 2012

सुनो .....

सुनो ..... यूं हुस्न पे अपने इतना मत इतराओ ग़ैर की दौलत पर हक़  मत जताओ ये बताओ ..... कि किसने तुम्हारी जुल्फों को रंगा  था सावन के रंग में किसने निचोड़ कर काली घटाएँ भर दिया इनके अंग - अंग में किसने सिखाया इन्हें आबशार (झरने) सा ढलकना है कि  शरमाये जब चाँद बादल में बदलना है। ज़रा हाथ लगाकर देखो इनकी रंगत गवाही है इनकी रंगत कुछ और नहीं मेरे क़लम की स्याही है ... सुनो .....  यूं हुस्न पे अपने इतना मत इतराओ ग़ैर की दौलत पर हक़ मत जताओ तुम्हें क्या पता नहीं ..... जुल्फों के पीछे छिपा माहताब (चाँद) किसका है? इक जगता  हुआ सा ये ख्वाब किसका है? किन धडकनों की आरज़ू हो तुम किसकी इबादत-मज़हब-वज़ू हो तुम हरपल किसकी जुस्तजू हो तुम फिरभी , हरदम किसके रू -ब- रू हो तुम किसके लिए हर शय में हो, हर जगह हो किसकी शाम हो, शब हो, सुबह हो खुद से जो पूछो कि तुम क्या हो किसी के लिए जीने की वजह हो ....... कि अब इतना इतराओ नहीं राज़ -ए - दिल बता भी दो - 2 किसी की अमानत है ये अपना दिल लौटा भी दो .........
मेरा दिल तुम्हें कुछ इस तरह ढूंढता है. जैसे कोई फ़क़ीर अपना ख़ुदा ढूंढता है. टटोलता है हाथों की लक़ीर अक्सर  अक्सर इक लापता का पता ढूंढता है. कभी ख़्वाब, कभी ख़्याल, कभी यादों में गुंजाइश  की  हर  जगह  ढूंढता  है. इसके दर्द की वजह तुम हो लेकिन पूछिए तो कहता है कि दवा ढूंढता है. तुम्हारी जुल्फों -  सी  शाम चाहता है ये, तुम्हारे  चेहरे - सी  सुबह  ढूंढता  है. तुम  हो  एहसास  की  ठंडी  पुरवायी, मगर ये पागल सूरत-ए- सबा ढूंढता है. काश कि झाँक पाता ये खुद में फ़क़ीर समझ जाता कि बे - वजह ढूंढता है.
तुम रूठ जाओ, तुम्हें मनाने का लुत्फ़ आता है. कि तुम्हें यूं ही खो के पाने का लुत्फ़ आता है. बगैर 'जाँ'" के भी जीते हैं कुछ दिन, हथेली पे दही जमाने का लुत्फ़ आता है. खुद से करें वादा, देखेंगे नहीं तुमको देखके तुमको वादा भूल जाने का लुत्फ़ आता है. वफ़ा के CONTRACT का कर लें RENEWAL बेवफा होकर भी वफ़ा निभाने का लुत्फ़ आता है. हर लम्हा खुद से बोलें, तुम्हें याद नहीं करते अजी दिल को बहलाने का लुत्फ़ आता है. जलती रही शम्मा, कि परवाने को है जलाना कि जल - जलकर जलाने का लुत्फ़ आता है. यूंही इकदिन ख़ुदको, फिर कर देंगे तेरे हवाले ठोकरें खाकर घर लौट आने का लुत्फ़ आता है.

तक़दीर:

एक नजूमें (Fortuneteller) ने कहा था 'इन्हीं हाथों के मकड़जालों में ही तेरी दुनिया तमाम है... ....यही तेरे सफ़र की इब्तिदा (Beginning) है रस्ता है मक़ाम है.' मैंने ये महसूस किया है जबसे वो मिलने लगी है हथेलियों पर इक नयी लक़ीर उभरने लगी है.

सोन चिडैया

(ग़ायब होती गोरैया के नाम....) मेरी सोन चिडैया किधर गयी? मेरी सोन चिडैया किधर गयी? पंख - पंख जो बिखर गयी मेरी सोन चिडैया कहाँ गयी? जगी सुबह आती थी जो जीवन गीत गाती थी जो शाख़ पे बैठी गुलाब थी जो ख़ुली आँखों का ख़्वाब थी जो जाने कब हमसे बिछड़ गयी? मेरी सोन चिडैया कहाँ गयी? सुबह -ओ- शाम जहाँ गुंजन था पेड़ नहीं वो उपवन था बसंत जहाँ हर मौसम था तरक्क़ी में लेकिन अड़चन था घर की छत उठानी थी मासूमों पे विपदा आनी थी खड़े दीवार - ओ- दर हुए कई मासूम बेघर हुए..... घोंसला उसका छूट रहा था तिनका - 2 दिल टूट रहा था देख बेचारी सिहर गयी.... मेरी सोन चिडैया कहाँ गयी? वो मेरे घर भी आती थी दाना - पानी पाती थी वो मेरे घर भी आती थी दाने -दो- दाने ही चखना जितना चाहिए उतना ही रखना सीख हमें दे जाती थी वो मेरे घर भी आती थी.... दिनों बाद उसका पर मिला है उसकी अश्क़ों से तर मिला है हूक उठी दिल में और शर्म से झुका सर मिला है... दिनों बाद उसका पर मिला है पूछने लगे बच्चे मेरे पंख पे उनकी जो नज़र गयी मेरी सोन चिडैया कहाँ गयी?

गुज़रा वक़्त ---------

तस्वीरों से फुरसत पाकर यादों में मसरूफ़ हो गया.... हर बार की तरह दिल ने चाहा फिर लौट चलें दोनों सिरे से बंद उस गली में जिसे कहते हैं माज़ी मैं तो तैयार ही था बस वक़्त ही न हुआ राज़ी... यादों से पाकर फुरसत टेबल कैलेण्डर में मसरूफ़ हो गया... उंगलियाँ परत-दर-परत उसके बीते छिलके उतारने लगीं. किसी वक़्त को खुद में जकड़े कोई लाल स्याही आवाज़ देकर रोक लेती थी. फिर कोई यादों का पुलिंदा खोल देती थी. घडी भर उनकी सोहबत में रहकर फिर सोचता था. वक़्त लौटता क्यूँ नहीं..... वो मासूम माँ की उंगली छोड़ने की गुस्ताख़ी कर गया क्या? मेले की रौशनी में चिराग़ कोई बिछड़ गया क्या? या किसी की मुश्त के कफस में हो.... छूटना शायद उसके न बस में हो.... फिर किसी ने बताया मुझको गुज़ारा वक़्त लौटकर नहीं आता कभी.... तो क्या वक़्त गुज़र गया? अपना वक़्त करके पूरा वक़्त भी मर गया? शायद हाँ....तभी तो उसकी रूह भटकती है. सताती है हमको खुद भी तडपती है.... तभी तो बीते वक़्त की धड़कने भी थम गयीं हैं. टिक - टिक की आवाजें खामोशियाँ ओढे जम गयीं हैं. गर ऐसा है तो.... चलो उसकी रूह की ख़ातिर अमन मांग ले.... और कैलेण्डर के बीते पन्नो पर एक

अक्स:

तुम्हारी मौजूदगी की एक परत दबी है मेरे वजूद की तहों में. जब भी ख़ुद पर से ख़ुद का मलबा कुरेदने लगता हूँ..... चंद तहों के बाद तुम ख़ुद को मुझपर बिछा देती हो... सजा देती हो..... मुझको मुझसे ही मिटा देती हो.... चाह कर भी तुम्हारे वजूद से आज़ाद नहीं हो पाया... या यूं कहूं कि मैं ख़ुद से आज़ाद नहीं हो पाया ..... हर पल, हर कहीं साथ तुम हो... दीवार हूँ मैं ख़ुद के लिए बुनियाद तुम हो.....

सोचता हूँ कि..................

आज सूरज का गुस्सा अचानक मद्धम हो गया. जेठ खुद -ब- खुद सावन हो गया. ... तुम्हारी खुली जुल्फें देखी तो समझा जाना यूं बेमौसम बादलों का मेहमां बनके आना सोचता हूँ कि यूंही तुम खुली रखो जुल्फें तो क्या हो? बारिश की मेहरबानी फिर तो हर जगह हो.... दरिया फिर रेत की नागिन हो जाये और रेगिस्तान बेवा से सुहागिन हो जाये. फिर तो विरानियाँ बेज़ार हो जाएँगी.... मजदूरों - सा शहर का रुख़ करने को तैयार हो जाएँगी.... ------------------------------ ------------------------------ ------------------------------ - लफ्ज़ शबनम से तेरे लबों की पंखुड़ियों पे लटकते हैं.... शर्मीले हैं तुम - से लब छोड़ते हुए लरज़ते हैं... सोचता हूँ कि गर तुम्हारे लब बोलने को तैयार हो जाएँ..... फिर तो कानो में घुलने लगे शहद शहद की मक्खियाँ यूंही बेरोजगार हो जाएँ.... सोचता हूँ कि गर तुम सीख जाओ गुलाबी पलकें उठाना.... सारा शहर यूंही हो जाये मवाली फिर तो बर्बाद हो जाये सारा मयखाना ....... इसलिए... सोचता हूँ कि लाजिम है तेरी ख़ामोशी लाजिम है तेरा शर्माना..... सोचता हू

एक खोया क़स्बा.....

दूर... बहुत दूर है घर मेरा इतनी दूर कि ख़्वाबों के ज़रिये भी वहां पहुँचने में दिनों लग जाते हैं..... दरअसल ख़्वाब ही मेहमान सरीखे कभी कभार ही आते हैं...... नींद की मेहरबानी है. या यूं कहिये कि मनमानी हैं. ख़ैर, घर से चार छलांग लगाते ही एक पुराना सा मंदिर है. अभी दूरी बढ़ गयी हो तो पता नहीं. बचपन में लेकिन इससे ज्यादा वक़्त कभी लगा नहीं. मंदिर के अन्दर कई बूत हैं. बूतों में लोग ख़ुदा ढूंढतें हैं. और ख़ुदा..... दिन - दिन भर मंदिर के अन्दर - बाहर खेलते कूदतें हैं. प्रसाद लूटतें हैं. पास ही एक तालाब है. जिसके ठहरे शीशे में आसमान अपना चेहरा सजाता है. कभी सिर पर सूरज, कभी चाँद लगाता है. रातों को हमने कई दफ़ा मिटटी के ढेलों से चाँद तोडा है..... रेजा - रेजा करके छोड़ा है. टूटकर वो लहरों के साथ दूर दूर तक बिखर जाता था. बड़ा ढीठ था मौका मिलते ही पानी के ठहरते ही फिर जुड़कर...... खाने को दोमट मिटटी के पत्थर चला आता था. हमारी तरह शायद उसको भी सौंधी खुशबू मिटटी की बहुत भाती थी

पानी

--> इस पानी में ये बू सी क्यूँ है? बेरंग सी हुआ करती थी अब ये लहू सी क्यूँ है? क्यूँ लगती है ये कभी नमकीन मुझे किसी के हैं ये अश्क़ ..... क्यूँ इस दहशत पे है यक़ीन मुझे ? शिव की जटाओं में ये विदेशी रिबन किसका है? प्यास भरी हैं बोतलों में लुटा ज़मीर -ओ- ज़ेहन किसका है? छीनकर हमसे सुराही कटोरा हमें थमाया है किसने? दरिया को ताल आख़िर बनाया है किसने? हर घूँट में ज़हर -ए- तरक्क़ी मिलाया है किसने? जिसके लहू से धोये है तूने हर पाप .... हर दाग़ ऐ खूं - हराम दुनिया कर कुछ तो याद आँखों से बनके अश्क़ रिसती वही है जुनूं - सी खूं - सी नसों में दौड़ती वही है. जिस माँ की दूध ने सींची है तरक्क़ी वो बिजली, ये पटरी वो उड़न तश्तरी ये आटा चक्की क्या सिला दिया है उसके ममता का ऐ इंसां घोल दिया ज़हर उसमें मौत कर दी उसकी पक्की दी है उसे तुमने बस आठ साल की मोहलत जूडस चाँदी के तीस सिक्के!!!! तुम्हें पचेगी नहीं ये दौलत जूडस चाँदी के तीस सिक्के!!!! तुम्हें पचेगी नहीं ये दौलत............

सूत पुत्र कर्ण

1. हे गिरधारी ! हे निस्वार्थ! भले ही परमार्थ तुम्हारी मंशा में निहित है ... विराट ईश्वरीय स्वार्थ क्या अधर्म नहीं है ये, तथाकथित धर्म का... क्या है कोई विकल्प ... इस सूत पुत्र कर्ण का.... 2. दुर्भाग्य ने हो डंसा जिसे जननी ने हो तजा जिसे आगत पीढियां पूछेंगी क्यूँ भगवान् ने भी छला उसे क्या प्रत्युत्तर होगा तुम्हारा प्रश्न के इस मर्म का क्या है कोई विकल्प इस सूत पुत्र कर्ण का..... 3. स्वयंवर का दिन स्मरण करो अन्याय वो मनन करो मेरी चढ़ी प्रत्यंचा रोक ली कहकर मुझे सारथी क्या करूं बताओ मुझे अपमान के इस दहन का... क्या है कोई विकल्प इस सूत पुत्र कर्ण का.... 4. जब सबने मुझे ठुकराया था गांधेरेय ने मुझे अपनाया था सहलाकर घाव मेरे मुझे गले से लगाया था क्या मोल न चुकाऊं मैं मित्रता के चलन का.... क्या है कोई विकल्प इस सूत पुत्र कर्ण का.... 5. पांडव जीते दुर्भाग्य हारकर जुए में कौरव नेत्रहीन हुए स्वार्थ के धुंए में कोई कारण बताओ मुझे अकारण मेरे पतन का क्या है कोई विकल्प इस सूत पुत्र कर्ण का.... 6. इस नश्वर जीवन का तनिक मुझे लोभ नहीं

एक खोया क़स्बा.....

दूर... बहुत दूर है घर मेरा इतनी दूर कि ख़्वाबों के ज़रिये भी वहां पहुँचने में दिनों लग जाते हैं..... दरअसल ख़्वाब ही मेहमान सरीखे कभी कभार ही आते हैं...... नींद की मेहरबानी है. या यूं कहिये कि मनमानी हैं. ख़ैर, घर से चार छलांग लगाते ही एक पुराना सा मंदिर है. अभी दूरी बढ़ गयी हो तो पता नहीं. बचपन में लेकिन इससे ज्यादा वक़्त कभी लगा नहीं. मंदिर के अन्दर कई बूत हैं. बूतों में लोग ख़ुदा ढूंढतें हैं. और ख़ुदा..... दिन - दिन भर मंदिर के अन्दर - बाहर खेलते कूदतें हैं. प्रसाद लूटतें हैं. पास ही एक तालाब है. जिसके ठहरे शीशे में आसमान अपना चेहरा सजाता है. कभी सिर पर सूरज, कभी चाँद लगाता है. रातों को हमने कई दफ़ा मिटटी के ढेलों से चाँद तोडा है..... रेजा - रेजा करके छोड़ा है. टूटकर वो लहरों के साथ दूर दूर तक बिखर जाता था. बड़ा ढीठ था मौका मिलते ही पानी के ठहरते ही फिर जुड़कर...... खाने को दोमट मिटटी के पत्थर चला आता था. हमारी तरह शायद उसको भी सौंधी खुशबू मिटटी की बहुत भाती थी
बेशक़ आप होंगे ख़ुदा मगर, हमें ख़ुदायी पर यक़ीन नहीं. बुलंदी परिंदे की मजबूरी है कोई, उसके पैरों तले जो ज़मीन नहीं. चखकर देखा था मैंने, दोस्तों के अश्क़ पानी तो था मगर नमकीन नहीं. झुर्रियों के पीछे, दुआ सा चेहरा मिरी माँ से यहाँ कोई हसीन नहीं. उसकी गोद में रखकर सर, आया ये ख्याल बदनसीब ख़ुदा भी, मुझसा मुतमईन नहीं. ठोकरों पर रखता है, दुनिया को वो फ़कीर, अब बदहाली होगी इससे बेहतरीन नहीं.

CREATIVITY

ऑफिस के AC कमरे में सोने के पिंजरें में चूरण बेंच रहे हैं. ATTITUDE के साथ CREATIVITY की चिता पर रोटी सेंक रहे हैं. SELF - MADE COCOON के अन्दर हम - से कुछ कूप - मंड़ूप ... गट गट घमंड पी रहे हैं... मूत रहे हैं. ख़ुद को सरापा जलाकर जो थोडा सा राख पैदा हुआ उसकी रौशनी में इतराकर सूरज पर थूक रहे हैं. और बाहर..... एक मदमस्त फकीर लांघकर हर लकीर लिख गया दीवार पर: "आज रात अमावास होगा. चाँद को रख लिया है दिल में छत से उतारकर........"

भ्रष्टाचार

अब अपने शहर में भी मॉल खुलेगा. दुनिया भर का जिसमें माल मिलेगा. डॉलर ने खरीद ली गरीब की क़िस्मत. ... कौड़ी लगायी गयी है झोपड़ी की क़ीमत. मॉल में ही अब मिलेगी भाजी तरकारी. PACKAGED होगी अब दुनिया हमारी. मंगू की ठेले पर लाश मिली है. मुठ्ठी में ज़ब्त, बची हुई पोटाश मिली है. सब्ज़ी मंडी बंद हो गयी होने दो. भूखे नंगे रो रहे हैं रोने दो. मंगू में अपना हश्र देख रहे हैं कई मंगू.... लाशें लाश ढो रहीं हैं ढोने दो. हिन्दुस्तान की ये तरक्की... ज़िन्दाबाद बंद हो गयी आटा चक्की.... ज़िन्दाबाद ग़रीब मर गया, कम हुई ग़रीबी... ज़िन्दाबाद बदनसीबी में छुपी ख़ुशनसीबी... ज़िन्दाबाद बस्ती चीखती है दिन रात... ज़िन्दाबाद सरकारी हाथ है आपके साथ.... ज़िन्दाबाद हवा पे टैक्स, पानी पे टैक्स, ज़मीं पे टैक्स ख़ाब पे टैक्स, उम्मीद पे टैक्स, यक़ीं पे टैक्स आपका पैसा खा गया खादी वाला उसका टैक्स बोफोर्स, ताबूत, .2G, CWG घोटाला उसका टैक्स मूर्तियों से पाट दिया गाँव शहर उसका टैक्स गाँधी का, गाँधी (रुपया) पे है बुरी नज़र... उसका टैक्स शक़ल गयी है दादी और बाप पर... उसका टैक्स पगड़ी अगली बंधेगी उसके सर.... उसका टैक