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Showing posts from February, 2012

पासे

चलो दो पासे ऐसे बनाये जिनके छहों पीठों पर एक ही एक हो. कि कम से कम खेल में तो कोई मज़हब न हो. ऊंच नीच की सरहद न हो. जिसका मकसद नेक हो. जिनके छहों पीठों पर एक ही एक हो. फिर हम ख़ुदा को शायद और न दे कोई तकलीफ... GOD, राम, अल्लाह के चोलों से, उसको भी मिल जाए थोड़ी RELIEF चलो दो पासे ऐसे बनाये जो भाइयों को भाइयों से न लड़ाएं. उन्हें मिलाएं. कि सदियों से चल रहा 'अठारह दिन' का खून खराबा अब खत्म हो. पासे बने मरहम. दिल पर न कोई ज़ख्म हो. कि पाडवों - कौरवों की चालों से न आये कोई द्रौपदी किसी मुश्किल में. हया न हो बेहया बेशर्मों की महफ़िल में. चलो दो पासे ऐसे बनाये. जो सबको ख़ुशनसीब बनाएं. एक बदनसीब कैदी* से खुशनसीबी की उम्मीद क्यूँ लगायें? कफस में क़ैद तोते तब बस उड़ने के काम आयें. चलो दो पासे ऐसे बनाये. चलो दो पासे ऐसे बनाये. * (भविष्य बताने वाला तोता)

उसकी गली में.....

गली के एक कोने में घर था उसका .... मेरे घर से फासला था क़दम -दो- क़दम भर का... इन दो कदमों के दरम्यां थी रस्मे - रवायतें... बेड़ियाँ.... हथकड़ियां.... या यूं कहें कि तमाम दुनिया.... मुझसे मतलब नहीं था उसका मुझे देखकर अक्सर मुंह फेर लेती थी. उसका राब्ता तो मेरी नज़रों से था, दीद से दीद को सलाम कहती थी. उसके नाज़ुक लब जब चूमते थे पंखुड़ियों को... पंखुड़ियां पंखुड़ियों को डंस लेती थी... देखकर ज़ख़्मी लाल लबों को.... नाम मेरा ले सखियाँ ताने कसती थी. अक्सर कानाफूसी छतें लांघकर आ जाती थी मेरे दर... हवा की दीवार पर कान लगाकर सरगोशियों से चुनता था अपने नाम को ही मैं अक्सर... फिर जोड़कर दो नामों को इश्क का हिसाब लगाता था. हरबार .FLAME में बच जाता था L हरबार दुनिया को दरम्यां पाता था. उम्र गुज़र गयी परछाईयों के घटने - बढ़ने में... उम्र गुज़र गयी ... रेत का सुराख से सरकने में... बरसों बाद फिर लौटा हूँ मैं गली में उसकी नज़रें मेरी टटोल रहीं हैं हर खिड़की.. वो अक्सर अपनी एक जोड़ी आँखें' खिड़कियों पर रख देती थी. उन एक जोड़ी आँखों के लिए जो हर व

सुबह सुबह

सूरज जगा, सुबह जगी... उड़ते सरगम के कलरव से नींद टूटी... मैंने कहा उठ जा रिमझिम मंत्र सरीखा "खुल जा सिमसिम".. पलकों के दो परदे खुले दो गहरी झीलें जगी दो लचकदार नाज़ुक टहनियां, बिखरे सावन बटोरने लगी . दो पंखुड़ियां फडफडायीं मुझे देखा, मुस्कुरायीं... सुबह सुबह दिल ने कलेजा थाम लिया चाँद ने ली अंगडायीं..... सुबह सुबह

जाल

बंसी (FISHING ROD) डाल के बैठेगे फुर्सत के सरवर (सरोवर) में. यादें पकड़ना अब अपना शगल बनाएं. या माज़ी में स्याही बिछाएं लम्हें फसाएं ग़ज़ल बनाएं. या फिर नंगे हाथ ही वक़्त की दरिया में उतर जाएँ खूब खंगाले लहरों को अश्क से तर सरवर से यादें तुम्हारी पकड़ लायें. इससे पहले कि वक़्त का ठहरा पानी मेरे धड़कन की हलचल से मटमैला हो जाए.... इससे पहले कि चंचल यादें इसमें छिपकर खो जाएँ.... स्याही के लफ्ज़नुमा जाल में फंसा लूं तुमको.... मन के AQUARIUM में ऐ जलपरी बसा लूं तुमको.....