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Showing posts from July, 2018
नज़रों के नहीं जुड़ते हैं तागे देखो देखो, अबकि मुझे जिस्म से आगे देखो एक सपना आकर लेट गया बगल में कहता है अब मुझे जागे जागे देखो मैं मर न गया तो फिर तुम बोलना ज़रा एकबार अपनी क़सम खाके देखो प्यादा हूँ तो यूं क़ुर्बान न करो मुझको वज़ीर बन जाऊंगा आज़मा के देखो बंधे हाथ तैराने के बाद, हाकिम ने कहा इस परकटे को पहाड़ से उड़ाके देखो अमावस की रात जो वो आये छत पे फिर तुम चाँद को चाँद के बहाने देखो दिल्ली दिलरुबा सी होने लगी है, यानी बिछड़ने वाले हैं दो दीवाने देखो वो जो उनसे न मिल सके, खुश हैं फ़क़ीर वो जो ख़ुश हैं, कितने हैं अभागे देखो
कब कहा मैंने मुझमें ऐब नहीं है पर आपके जैसा फरेब नहीं है बदन पर कुर्ता है आपके जैसा कुर्ते में मगर मेरे जेब नहीं है
कोई उदास है किसी की वो खुशी है मुक़म्मल ज़िंदगी की जैसे इक कमी है सड़कें बिछाके सो गया, गहरी है नींद भी आंख में ख़ाब नहीं, वो कितना धनी है क्यों किसी ग़रीब की ले रहा है जान ख़ुदा नहीं है तू, कि बस एक आदमी है नब्ज़ देख मरीज़ की बोला चारागार बीमार में एहसास की सख्त कमी है माँ की आँख का समंदर रहता है उफान पे बाप की आंख की नदी जम सी गयी है सब देखके भी खामोश रहना, ग़लत नहीं है पर इतना 'गलत न होना' भी, कहाँ 'सही' है तुमने जहाँ छोड़ा था, वहीं रुक गया राह सा इक सफ़र-सी उम्र, मुझसे गुज़र रही है गर्दन से बंधा पुराना कैलेंडर लटकता हुआ नाकाम वक़्त की दरअसल खुदकुशी है
वो जो कुछ काटके कुछ और लिखा है उसी में ही असली पैग़ाम छिपा है दरम्यां जो गुफ्तगू का है सिलसिला वो बस मेरी ख़ामोशी से टिका है उसे सुनूं तो कोई और ही है लगे उसको देखूं तो कोई और दिखा है मशहूरी का ये आलम है कि मुझे जो जानता भी नहीं, वो भी खफ़ा है उसके सामने सर झुकाया, तो पाया अपना सर अपने क़दमों में रखा है बेची नहीं क़लम, जिसने भी फ़क़ीर अख़बार सा वो भी रद्दी में बिका है