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Showing posts from June, 2012

अक्स:

तुम्हारी मौजूदगी की एक परत दबी है मेरे वजूद की तहों में. जब भी ख़ुद पर से ख़ुद का मलबा कुरेदने लगता हूँ..... चंद तहों के बाद तुम ख़ुद को मुझपर बिछा देती हो... सजा देती हो..... मुझको मुझसे ही मिटा देती हो.... चाह कर भी तुम्हारे वजूद से आज़ाद नहीं हो पाया... या यूं कहूं कि मैं ख़ुद से आज़ाद नहीं हो पाया ..... हर पल, हर कहीं साथ तुम हो... दीवार हूँ मैं ख़ुद के लिए बुनियाद तुम हो.....

सोचता हूँ कि..................

आज सूरज का गुस्सा अचानक मद्धम हो गया. जेठ खुद -ब- खुद सावन हो गया. ... तुम्हारी खुली जुल्फें देखी तो समझा जाना यूं बेमौसम बादलों का मेहमां बनके आना सोचता हूँ कि यूंही तुम खुली रखो जुल्फें तो क्या हो? बारिश की मेहरबानी फिर तो हर जगह हो.... दरिया फिर रेत की नागिन हो जाये और रेगिस्तान बेवा से सुहागिन हो जाये. फिर तो विरानियाँ बेज़ार हो जाएँगी.... मजदूरों - सा शहर का रुख़ करने को तैयार हो जाएँगी.... ------------------------------ ------------------------------ ------------------------------ - लफ्ज़ शबनम से तेरे लबों की पंखुड़ियों पे लटकते हैं.... शर्मीले हैं तुम - से लब छोड़ते हुए लरज़ते हैं... सोचता हूँ कि गर तुम्हारे लब बोलने को तैयार हो जाएँ..... फिर तो कानो में घुलने लगे शहद शहद की मक्खियाँ यूंही बेरोजगार हो जाएँ.... सोचता हूँ कि गर तुम सीख जाओ गुलाबी पलकें उठाना.... सारा शहर यूंही हो जाये मवाली फिर तो बर्बाद हो जाये सारा मयखाना ....... इसलिए... सोचता हूँ कि लाजिम है तेरी ख़ामोशी लाजिम है तेरा शर्माना..... सोचता हू