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Showing posts from February, 2010

क्या आसमां है ये, ये कैसी ज़मीं है.

क्या आसमां है ये, ये कैसी ज़मीं है. हर मरासिम चोटिल है, हर रिश्ता ज़ख़्मी है. कितना बड़ा है तुम्हारा मुट्ठी भर का शहर, दीवार दीवार से लगी है मगर पडोसी अजनबी है. उस गाँव में फासला है घरों के दरमयां, दिल सा एक ही आँगन लेकिन हर कहीं है. वैसे तो भीड़ लगी रहती है ज़रूरतमंदों की, ज़रुरत पड़े तो तन्हाई है, कोई नहीं है तमाम खला, दुनिया तमाम एक ही बैग में, छोटे कांधों पर इतना बोझ सही नहीं है. हिंद - पाक, बुश - लादेन, इस्रायल - फलस्तीन साथ उड़ेंगे, काग़ज़ी जहाज़ बनाने वालों को कितना यक़ीन है.