Skip to main content

Posts

Showing posts from April, 2012

एक खोया क़स्बा.....

दूर... बहुत दूर है घर मेरा इतनी दूर कि ख़्वाबों के ज़रिये भी वहां पहुँचने में दिनों लग जाते हैं..... दरअसल ख़्वाब ही मेहमान सरीखे कभी कभार ही आते हैं...... नींद की मेहरबानी है. या यूं कहिये कि मनमानी हैं. ख़ैर, घर से चार छलांग लगाते ही एक पुराना सा मंदिर है. अभी दूरी बढ़ गयी हो तो पता नहीं. बचपन में लेकिन इससे ज्यादा वक़्त कभी लगा नहीं. मंदिर के अन्दर कई बूत हैं. बूतों में लोग ख़ुदा ढूंढतें हैं. और ख़ुदा..... दिन - दिन भर मंदिर के अन्दर - बाहर खेलते कूदतें हैं. प्रसाद लूटतें हैं. पास ही एक तालाब है. जिसके ठहरे शीशे में आसमान अपना चेहरा सजाता है. कभी सिर पर सूरज, कभी चाँद लगाता है. रातों को हमने कई दफ़ा मिटटी के ढेलों से चाँद तोडा है..... रेजा - रेजा करके छोड़ा है. टूटकर वो लहरों के साथ दूर दूर तक बिखर जाता था. बड़ा ढीठ था मौका मिलते ही पानी के ठहरते ही फिर जुड़कर...... खाने को दोमट मिटटी के पत्थर चला आता था. हमारी तरह शायद उसको भी सौंधी खुशबू मिटटी की बहुत भाती थी
बेशक़ आप होंगे ख़ुदा मगर, हमें ख़ुदायी पर यक़ीन नहीं. बुलंदी परिंदे की मजबूरी है कोई, उसके पैरों तले जो ज़मीन नहीं. चखकर देखा था मैंने, दोस्तों के अश्क़ पानी तो था मगर नमकीन नहीं. झुर्रियों के पीछे, दुआ सा चेहरा मिरी माँ से यहाँ कोई हसीन नहीं. उसकी गोद में रखकर सर, आया ये ख्याल बदनसीब ख़ुदा भी, मुझसा मुतमईन नहीं. ठोकरों पर रखता है, दुनिया को वो फ़कीर, अब बदहाली होगी इससे बेहतरीन नहीं.