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Showing posts from September, 2014
चाँद कितना बेचारा लगता है एक बुझा हुआ तारा लगता है आसमान के आईने में अजी अक्स हमारा लगता है बे-पतवार उतरा हूँ दरिया में देखो कहाँ किनारा लगता है कफ़न ओढ़े सोया है जो ज़िन्दगी का मारा लगता है उसकी रुख से धोखा खा गए आतिश भी प्यारा लगता है उसको वजूद कहता था अपना वो ख़ुद से हारा लगता है कितनों की मन्नतें हो गयी पूरी वो   टूटा ऐसा, तारा लगता है

मुझसे तेरी खुशबू आती है......

तुम्हारा ज़िक्र लबों पर दबा लेता हूँ तुम्हारा रुख पलकों में छुपा लेता हूँ साँसों में सरगोशी भी है चुप चुप सी, धीमी धीमी धड़कने भी चलती हैं अब दबे क़दमों से, थमी थमी बचा रहा हूँ तुम्हें छिपा रहा हूँ तुम्हें दुनिया से, रुसवाई से कभी कभी अपनी ही परछाई से लेकिन ख़्वाब में तुझसे बातें करने की आदत अक्सर मुझे डराती है अब दिल में छुपाना मुमकिन नहीं मुझसे तेरी खुशबू आती है. मुझसे तेरी खुशबू आती है.
पीछे-पीछे सचमुच ही चाँद हमारे साथ चले? एक ही जगह पर या, हम ही सारी रात चले? ज़ख़्मी है गुफ्तगू भी, तराशे-पैने लफ़्ज़ों से ख़ामोशी  के लहजे में अब कोई बात चले बड़े लोगों की दुनिया भी, अलग ही कोई दुनिया है जनाज़े भी निकले यूं, जैसे कोई बारात चले परछाईं सी है बदहाली, घटती-बढ़ती रहती है मेरे क़दमों से उलझे, ये मेरे हालात चले ढूंढ रहे हैं पत्थर में, जो ख़ुदा  की गुंजाईश कितने सुरीले लय में, बुतकारों के हाथ चले ----FAQEER