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Showing posts from May, 2010
उसकी उससे तआर्रुफ़ कराये कोई. उसके रुख़ से भी पर्दा हटाये कोई. दरार पड़ सकती है उसमें भी, आईने को भी आईना दिखाए कोई. बहुत गुरुर है दरिया को अपनी लहरों पे, मौज-ए- समंदर से भी उसे मिलवाए कोई. आँखें तरेरता है पर्वत तो डरता हूँ, ज़र्रा कहीं आँखों में पड़ न जाये कोई. हवा जो चराग़ से उलझकर हंसती है, लौ से जलकर लू न रह जाये कोई. डूब गया सारा जहाँ जिस सैलाब में, उसके सीने पे बनके तिनका लहराए कोई. जो फूंकते हैं इस गफ़लत में कि मैं चराग़ हूँ फ़कीर, समझाओ उन्हें चिंगारी हूँ, मुझे यूँ न आज़माये कोई.