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Showing posts from November, 2014

तुम्हें याद हो कि न याद हो

वो जो एक दरख्त था जिसकी मीठी छांव ओढ़कर एक तन्हा तीखी दोपहर साथ साथ देखते रहे डाल-डाल चढ़ते हुए ख्वाबों को पाते बुलंदियां सर झुकाए आज भी याद करता है तुम्हें… तुम्हें याद हो कि न याद हो. -------------------------------------------------------------------------- वो जो एक झील थी जिसके ठहरे शीशे में कभी हम देखते थे आईना पानी के ऊपर थी बनी तस्वीर इक तिरी-मिरी रात थाली सी सजी परोसती थी जो पूनम का चाँद कल-कल जो जुबां में याद करती है तुम्हें… तुम्हें याद हो कि न याद हो. -------------------------------------------------------------------------- हवेली की वो बूढ़ी सी छत तन्हा सी अकेली सी छत छुपा लेती थी हमें हिफाज़त के आग़ोश में सीढ़ियां बताती थी जिसकी आ रहा है इधर कोई वो सीढ़ियां कब से खामोश हैं बस याद करके इक तुम्हें तुम्हें याद हो कि न याद हो -FAQEER