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Showing posts from 2015

मैंने क़ब्र पर मकान बनाया है

चारदीवारी ने मिलकर छत को कांधा लगाया है मैंने क़ब्र पर मकान बनाया है अपनी हर ख़्वाहिश को बुनियाद तले दफनाया है मैंने क़ब्र पर मकान बनाया है मेरे बाहर अंदर की दीवार बनेंगी दीवारें मेरे बदतर बेहतर की दीवार बनेंगी दीवारें मेरे घर और दफ्तर की दीवार बनेंगी दीवारें मेरे सत्रह - सत्तर की दीवार बनेंगी दीवारें बेबस ईमान को मैंने दीवारों में चुनवाया है मैंने क़ब्र पर मकान बनाया है आड़े तिरछे तरक़ीबों से सीधी खड़ी हैं दीवारें किसी की कमज़ोरी की ईंटों से मज़बूत खड़ी हैं दीवारें मेरे मन के बौनेपन से ऊंची खड़ी हैं दीवारें कंट्रीब्यूशन है हर मज़लूम का सिर्फ अपना नाम लिखवाया है मैंने क़ब्र पर मकान बनाया है
कभी मस्जिद, कभी चर्च, कभी शिवाले में  मकड़ी फंसती जा रही है अपने ही जाले में

तुम आ जाती हो

तुम आ जाती हो तो हर *सूरत में दुनिया *In each & every situation खूब सूरत ही दिखती है ये *मुद्रा – स्फीति… *Inflation लगती है तेरे दुपट्टे के ढलकने सी सेंसेक्स का गिरना उछलना तेरी पलकों का झुकना, झुक के उठना छुप के देखना फिर अनजान बन जाना जैसे पाकिस्तान का दाऊद को छुपाना ज़िन्दगी की हर उलझन तुम्हारी ज़ुल्फ़ें सुलझाते सुलझाते सुलझने सी लगती है तुम आ जाती हो तो हर सूरत में दुनिया खूब सूरत ही दिखती है दाल की महंगाई से बेफिकर सोचता हूँ तन्हाई में बेसबर प्यार की पींगें कैसे बढ़ाएं अपनी दाल कैसे गलाएं वो जो कॉरिडोर में तुम्हारा रूमाल पाया था तुम्हारी *मिल्कियत *Possession तुम्हीं से छुपाया था साहित्य अकादमी के अवार्ड सा लौटा दूँ क्या पर पहले रूमाल की *तह में *Layer अपना दिल छुपा दूँ क्या लव जिहाद टू जिहाद लव इनके बारे में सोचने की फुरसत है कब बस तुम्हारी यादों में मसरूफियत दिल को मंज़ूर है *निष्क्रिय पड़ा है UN सा *Inactive हर मामले से दूर है गैर के साथ देख तुम्हें दिल की हसरत सांप्रदायिकता सी सुलगती है तुम आ जाती हो तो हर सूरत में दुनिया खूब सू
एक बोतल सरसो का तेल…  या एक बोतल बच्ची के लिए दूध… या एक बोतल सुहाग का आल्ता… या एक बोतल माँ की दवा… या एक बोतल खुदगर्ज़ी की दारू… या इस बार… एक बोतल पेट के चूहे मारने वाला ज़हर… के बदले… एक बोतल खून बेच आएगी… वो लाश.
आज तो बेशक तुझे ख़ुदा बनाएंगे सलीब पे कल तुझे ही टांग आएंगे जिस पत्थर को सब मार रहे हैं ठोकर तराश ले खुदको तो सब सर झुकाएंगे आज चाहते हैं तू फूंक दे दुश्मन का घर देखना कल तुझे ही फूंक के बुझाएंगे गौ माता ये जो तुम्हारे रक्षक है सही दाम मिले तो तुम्हें बेच आएंगे इंसान ही नहीं ख़ुदा का भी नसीब है मिट्टी बुत बारिश में घुल के बह जाएंगे हाक़िम का हुक़्म है 'ऐ भूखे किसानों! तुम्हारी पेट की आग पर रोटी पकाएंगे' सियासत की तमन्ना खड़ी करना दीवारें फ़क़ीर हमारी भी ज़िद है हम इसपे छत बनाएं
यूं बच बचा के मैं तेरा रूप देखूं आईने में जैसे खुली धूप देखूं पत्थरों में देवता देखती है दुनिया पत्थरों में मैं मेरा महबूब देखूं सज़ा है *हिज़्र से पहले क़सम ख़ुदा ख़ाब तेरे शब ओ सहर ख़ूब देखूं वो सुबह का फूल मैं रात का जुगनू ‘फ़क़ीर’ इश्क़ का वजूद इसके बावजूद देखूं
जला जंगल छुपके रोता रहा तन्हाई में  लकड़ी उसी की थी उस दियासलाई में ---FAQEER

ग़ुमशुदा चाँद...

मेरा चाँद खो गया है मुझसे मिले, तो ज़रा मुझे बताना क़द? यही कोई दरम्याना सा मेरे हौसले से ज़रा-सा बुलंद रंग ऐसा कि सुबह भी सांवली लगे करे जो उसका सामना दिल में उतर जाए दूर तलक जैसे आईने के सामने रखा हो कोई आईना हँसे तो दो गालों पे झीलें उतर आएं उड़ते रंगों को भ्रम हो तितलियों सी इर्द-गिर्द मंडराएं दो गुलाबी पंखुड़ियों में बत्तीस हीरे जड़े ज़ुल्फ़ें जो झटक दे तो ग़रज़ के साथ छींटें पड़े आँखें चुम्बक सी खेंच ले जाती हैं इरादे चाहे जितने भी हों लोहा इशारे तिलिस्म लखनऊ के भूल-भुलइया से हर मोड़ पे है धोखा अंगड़ाइयां… इन्द्रधनुष का आठवां रंग आता है जिनको नींदें उड़ाना मेरा चाँद खो गया है मुझसे मिले तो ज़रा मुझे बताना

REVISED

माना कि फूलों की ज़ुबान क़तर जाएंगे खुशबू के शोर से बचकर किधर जाएंगे क्यों नहीं करते सामना वो आईने का उस अजनबी को देखेंगे तो डर जाएंगे वो परिंदा फिर न उड़ सकेगा *आईंदा जो पेट की सुनेगा तो उसके पर जाएंगे शेख की नसीहत 'सुकूं मिलेगा मस्जिद जा' करें जो मस्जिद का रुख तो तेरे घर जाएंगे उन पर इल्ज़ाम कैसे लगाओगे मियाँ नज़रों से कहके जुबां से *मुकर जाएंगे राम -ओ- रहीम तेरे एक घर के झगड़े में कितने बदनसीबों के घोंसले बिखर जाएंगे बुलंदी है शुरुआत गिरने की फ़क़ीर सर पर चढ़ेंगे तो नज़रों से उतर जाएंगे
जिस शजर की हवाओं से पाती हैं ज़िन्दगी ये पतंगें उन्हीं से लटक कर करेंगी कभी ख़ुदकुशी ये पतंगें तजर्बे का है हुनर उड़ना हवा के साथ मासूमियत  का  है  फ़न बरख़िलाफ़ उड़ती ये पतंगें छोटू के कॉपी के पन्नो को लग गया है पर इल्म को दे रही हैं नयी उरूज़ -ए- बुलंदी ये पतंगें आसमां की बंजर ज़मीन को बना दें ये आशियाँ आती रुतों  के  रंगीन गुलों  सी खिलती  ये पतंगें तजुर्बे के आसमान में उड़ रही हैं मिसाइलें मासूमियत  के  आसमान  में   हैं  उड़ती  ये पतंगें पर से कब हैं उड़ते, उड़ाते हैं हौसले सीखा  गयी  फ़क़ीर  बेपर  परवाज़  भरती ये पतंगें

भिखारी:

कुम्हलाई सी सुफ़ेद धूप का कफ़न ओढ़े मरा-मरा  ज़मीं पे पड़ा एक ठंडा जिस्म दिल की फांस, फंसी उम्मीद की आंच दिसम्बर की सुबह चराग़ सा बुझा-बुझा एक नंगा जिस्म ठंडी दुनिया से बचने के लिए ख़ुद को ऐसे सिकोड़ लेगा खुद में छुपी सूखी हुई धूप आख़िरी बूँद तक निचोड़ लेगा हर आने जाने वाला ताज्जुब से देख रहा है ‘एक मुर्दा कब्र के ऊपर धूप सेंक रहा है’ रुह बनके भूख जब आएगी इस मुर्दे को मौत से जगाएगी तब तलक इत्मीनान से इसे सोने दो...

ऐ धूल धमक पे आ जा तू

ऐ धूल.. ऐ धूल धमक पे आ जा तू अम्बर को भर ले मुट्ठी में सूरज की अकड़ को खा जा तू थूके तो बनके छींटें बनके छींटें गिरे जुगनू जुगनू ऐ धूल ऐ धूल धमक पे आ जा तू जिनके क़दमों ने तुझे रौंदा है धूल बन उनकी तू आँखों का  गर्द समझते हैं जो तुझको बन बवंडर उनकी राहों का  फूंक तू ऐसी चिंगारी  फूंक दे महल जले धूं धूं ऐ धूल ऐ धूल धमक पे आ जा तू दो से चार, चार से हज़ार हो एक-एक वार पैना, वार में धार हो पत्थर के हिटलर को तराशे जा मुजस्सम-ए-अवाम नक़्क़ाशे जा  बदल दे मौसम बढ़ा हरारत-ए-लहू ऐ धूल ऐ धूल धमक पे आ जा तू ऐ धूल ऐ धूल धमक पे आ जा तू