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Showing posts from November, 2012

सुनो .....

सुनो ..... यूं हुस्न पे अपने इतना मत इतराओ ग़ैर की दौलत पर हक़  मत जताओ ये बताओ ..... कि किसने तुम्हारी जुल्फों को रंगा  था सावन के रंग में किसने निचोड़ कर काली घटाएँ भर दिया इनके अंग - अंग में किसने सिखाया इन्हें आबशार (झरने) सा ढलकना है कि  शरमाये जब चाँद बादल में बदलना है। ज़रा हाथ लगाकर देखो इनकी रंगत गवाही है इनकी रंगत कुछ और नहीं मेरे क़लम की स्याही है ... सुनो .....  यूं हुस्न पे अपने इतना मत इतराओ ग़ैर की दौलत पर हक़ मत जताओ तुम्हें क्या पता नहीं ..... जुल्फों के पीछे छिपा माहताब (चाँद) किसका है? इक जगता  हुआ सा ये ख्वाब किसका है? किन धडकनों की आरज़ू हो तुम किसकी इबादत-मज़हब-वज़ू हो तुम हरपल किसकी जुस्तजू हो तुम फिरभी , हरदम किसके रू -ब- रू हो तुम किसके लिए हर शय में हो, हर जगह हो किसकी शाम हो, शब हो, सुबह हो खुद से जो पूछो कि तुम क्या हो किसी के लिए जीने की वजह हो ....... कि अब इतना इतराओ नहीं राज़ -ए - दिल बता भी दो - 2 किसी की अमानत है ये अपना दिल लौटा भी दो .........
मेरा दिल तुम्हें कुछ इस तरह ढूंढता है. जैसे कोई फ़क़ीर अपना ख़ुदा ढूंढता है. टटोलता है हाथों की लक़ीर अक्सर  अक्सर इक लापता का पता ढूंढता है. कभी ख़्वाब, कभी ख़्याल, कभी यादों में गुंजाइश  की  हर  जगह  ढूंढता  है. इसके दर्द की वजह तुम हो लेकिन पूछिए तो कहता है कि दवा ढूंढता है. तुम्हारी जुल्फों -  सी  शाम चाहता है ये, तुम्हारे  चेहरे - सी  सुबह  ढूंढता  है. तुम  हो  एहसास  की  ठंडी  पुरवायी, मगर ये पागल सूरत-ए- सबा ढूंढता है. काश कि झाँक पाता ये खुद में फ़क़ीर समझ जाता कि बे - वजह ढूंढता है.