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Showing posts from 2011

फेसबुक : चेहरों की किताब

ख़ुद एक चेहरे पर चढाये हज़ार चेहरे. अजनबी तहें खंगालने को बेकरार चेहरे. नंगे होने से जो कतराते हैं, हर वक़्त मुखौटों के तलबगार चेहरे. तेरे मेरे उसके शुमार - बेशुमार चेहरे, साथ हैं कुछ, कुछ दरकिनार चेहरे. काले गोरे सस्ते मंहगे हासिल मुश्किल चेहरों के है ‘खुले बाज़ार’ चेहरे. और हो गया तन्हा इनसे मिलके, तन्हाई की गिरफ़्त में हैं गिरफ़्तार चेहरे. जाने - पहचाने अजनबी से हैं कुछ, मकान -ए- दिल तोड़कर हुए बेज़ार चेहरे. सवालों से कभी नंगी तलवार चेहरे, और कभी जवाबों से मझधार चेहरे. जाने फिर क्यूँ ये खुशफहमी है, छिपे हैं इनमें ही पतवार चेहरे. चलो इसके बहाने वो क़रीब तो आये, बाबदन फासलों से दो लाचार चेहरे. इन्हीं किताबी चेहरों की है इक किताब, तिलस्मी चेहरे दर्ज हैं जिसमें बेहिसाब. उम्मीद की जो इक लौ जलाता है, लापता चेहरों का पता ढूंढ कर लाता है......
शहर बड़ा आलीशान है ये, पश्चिम की खुली दुकान है ये. मॉल है मण्डी के कब्र पर, दरअसल कोई श्मशान है ये. ... कौन कर रहा है भूखों की बातें, नंगा साला बेईमान है ये. चूल्हे नहीं चिता जलाओ, दिल्ली का यही फ़रमान है ये. रोज़ का कमा रहा है ३४ रुपये, लुच्चा भिखारी नहीं, धनवान है ये. भूखी बस्ती में नयी किलकारी, चार दिनों की मेहमान है . तरक्की की राह में आया पीपल, कटता हुआ भगवान् है ये. भूखा मर रहा है अन्नदाता, नयी तरक्की की पहचान है ये. कफ़न खोल कर हाकिम बोला, लगता है, हिंदुस्तान है ये. समझो न इसको अमन 'फ़कीर' चिंगारी कोई तूफ़ान है ये.

तेरी बातें.......

मसरूफियत भी क्या खूब दवा है यारों, उसे भी भूल जाता हूँ लम्हे दो लम्हें के लिए. 'ज़िन्दगी' है मेरी इस क़दर ख़ूबसूरत, कमउम्र भी परीशां हैं उसपे मरने के लिए. वो सर -ता- पाँ है अलग अलग तजर्बा, इक उम्र कम पड़ेगी उसे समझने के लिए. डूबने दे मुझे झील सी आँखों में साक़ी, बड़ी महफूज़ जगह है ख़ुदकुशी करने के लिए. एक पंखुड़ी से खाया है ख़ार ने वो ज़ख्म, पूरी उम्र भी कम पड़ेगी जिसे भरने के लिए. खैरख्वाहों ने समझाया 'ये लत है जानलेवा', अमां कौन जीता है यहाँ मगर संभलने के लिए. तमन्ना क्या है, कोई परवाना है 'फ़कीर', बेताब रहता है जलों से जलने के लिए.

दो दीये ज़्यादा जलाओ:

दो दीये ज़्यादा जलाओ: उस अंधी झोपडी के लिए बिजली जिसके लिए कोई सरकारी वादा है. ... उस काली गली के लिए जिसमें अक्सर गिरते हैं लोग उसे इसकी ज़रुरत ज़्यादा है. दो दीये ज़्यादा जलाओ: उस नन्ही सी जान के लिए जिसे मुफलिसी की बीमारी है कैंसर की इनायत है उसपर आज़ादी की तैयारी है. उस छोटे हरिया के लिए दिवाली के बाद, जिसकी दिवाली होगी चिथड़ों में ढूंढेगा पटाखे वो पेट - सा जेब न ख़ाली होगी. दो दीये ज़्यादा जलाओ: क्योंकि सबसे बुरा है उम्मीदों का मर जाना ये दीये हमें सिखलाएंगे रात के सीने पर लहराना दो दीये ज़्यादा जलाओ: भटकी उम्मीद को जो घर का रस्ता दिखलाएंगी कामयाबी भी आएगी दर तक संग खुशियों को भी लाएगी..... दो दीये ज़्यादा जलाओ.....
लताजी के लिए तुम गुमशुदा नहीं हो पाओगी कहीं लापता नहीं हो पाओगी... मेरे सरीखे कितने दिल ओ- ज़ेहन पर दस्तक है तुम्हारी तुम कोई आदत हो, लत हो लता हो लाईलाज बीमारी तुम्हारे हर लफ्ज़ मारतें हैं हमें किस्तों में तुम्हारी गुनगुनाहट से है नाता और क्या रखा है रिश्तों में जाने कैसे मेरी हर ख़ुशी हर ग़म का तुम्हें पता है ज़िन्दगी में इतनी दखलंदाजी किसको खटकती है, कब खता है तुमने अपनी आवाज़ को दी है सूरत कोई सुनता हूँ तो लगता है वीणा लिए गा रही है मूरत कोई तुम तन्हा होकर भी तन्हा नहीं हो सब हैं तुम्हारे तुम भी हर कहीं हो ऐ आवाज़ को पहचान बनाने वाली ऐ बुलंदियों को पायदान बनाने वाली ख़ुदा हैरत में है ख़ुद के करिश्में पर ऐ बूत! बूतकार को हैरान बनाने वाली.....

दहशतगर्द....

हर तरफ बारूद की ये बू क्यूँ है.... चिथड़ी उम्मीदें हैं ख़ाबों का लहू है... जिनके रंगे हैं हाथ लहू से क्या वो इंसान की औलाद नहीं हैं... हैं अगर इन्सान तो क्यूँ इंसान से जज़्बात नहीं है. जिनके आस्तीन भीगी हैं लहू में घर वो भी लौट कर जायेंगे... देखकर अपने बच्चों की ही लाशें कैसे उनसे नज़र मिलायेंगे... ये कैसी इबादत, किस खुदा को खुश कर रहे हैं.... फ़िक्र है न उसकी न उससे डर रहे हैं... लाशों में शामिल है लाश ख़ुदा की... अल्लाह! गुमराह हैं, मार रहे हैं मर रहे हैं.... रामू को है अभी भी अपने लख्त-ए- जिगर का इंतज़ार ताक रही हैं बूढी आँखें ख़बरों पर नहीं उनको ऐतबार तबस्सुम की अभी अभी तो हुई थी हाथ पीली मेहँदी के रंग उतर आये आँखों में लहू से है आँख गीली नन्हे अली की टिकी हैं दरवाज़े पर आँखें आज उसकी साल गिरह है अब्बा आयेंगे, लायेंगे जीप अब उसका इंतज़ार लम्बा है, बेवजह है श्वेता टूट गयी, रेजा रेजा हो गयी उसकी आँखें भर आई हाँ यही है भईया मेरा देखकर बोली राखी बंधी कलाई बेवा हुई हैं तेरी अपनी ही बहनें उठा है तेरे ही सर से बाप का साया पीकर इस वतन का दूध वाह तूने क्या

हमें भी कभी मुहब्बत थी....

तुझे देखकर यक़ीन होता है, ख़ुदा को भी कभी फ़ुरसत थी. शायद वो भी कभी इंसान था, मुझ जैसी ही उसकी हसरत थी. कभी वो भी था मरीज-ए- इश्क़ नासाज उसकी भी तबियत थी. बच गया वो ख़ुदा हो गया, उसकी ख़ुद पर रहमत थी. हम भटक रहे हैं रूह बनकर ज़रुरत है वो जो कभी चाहत थी. मकबरा -ए- फकीर गवाह है, हमें भी कभी मुहब्बत थी.

तक़दीर

एक नजूमे ने कहा था इन्हीं हाथों की लकीरों में दुनिया तमाम है. यही तेरे सफ़र की इब्तिदा है रास्ता है मक़ाम है. मैंने महसूस किया है जबसे वो मिलने लगी है मेरी हथेलियों पर एक नयी लकीर उभरने लगी है.

मुझसे तेरी खुशबू आती है......

तुम्हारा ज़िक्र लबों पर दबा लेता हूँ तुम्हारा रुख पलकों में छुपा लेता हूँ साँसों में सरगोशी भी है चुप चुप सी, धीमी धीमी धड़कने भी चलती हैं अब दबे क़दमों से, थमी थमी बचा रहा हूँ तुम्हें छिपा रहा हूँ तुम्हें दुनिया से, रुसवाई से कभी कभी अपनी ही परछाई से लेकिन ख़्वाब में तुझसे बातें करने की आदत अक्सर मुझे डराती है अब दिल में छुपाना मुमकिन नहीं मुझसे तेरी खुशबू आती है. मुझसे तेरी खुशबू आती है.