ख़ाली गली में दूर तलक
एक जानी पहचानी सी आहट
मेरा पीछा करती रही.
...
छिपती रही
डराती रही
और मुझसे डरती रही.
कुछ क़दम आगे बढ़ते ही
छू गयी मुझको वो आहट
पलट कर देखा तो
मुझसे लम्बी
मेरी परछाईं थी
और दूर....
बहुत दूर तलक फैली....
तन्हाई थी.
मेरी तरह ही
खुद में ज़ब्त
उसे भी शायद
आजादी डंसती थी
हर वक़्त...
मैं न चौंका
न डरा
न ही कुछ कहा.
न मैं तन्हाई से ना - वाकिफ हूँ,
ना ही है वो मुझसे बेखबर.
बल्कि.....
इन तन्हा रातों की
अकेली गलियों में
मेरे हर आवारा सफ़र का...
थी वो हमसफ़र.
दोनों साथ चलते रहे
हर बार की तरह
बेहद ख़ामोशी से
थक गए थे दोनों बहुत
काँधे पर लदी उदासी से.
कि तभी ....
उसी पहचानी सी आहट ने दी आवाज़...
हम दोनों घुम गए एक साथ...
दिखा:
पारदर्शी कोहरे से छनकर
कोई मेरे साये से लिपटकर
सामने की दीवार पर
दर्ज हो गया था.
एक शक्ल
मेरी परछाईं ओढ़कर
मुझमें ग़ुम थी.
मैंने दीवार टटोला
अपनी परछाईं निचोड़ी
तो जाना....
वो मैं नहीं था...
तुम थी....
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