किसी दिन गाँव को भी है नगर होना
दवा की बदनसीबी है जहर होना
चले दिनभर कहीं भी पर नहीं पहुंचे
नहीं आसाँ घड़ी का हमसफ़र होना
ग़ज़ब ये भी नहीं सर कट गया मेरा
ग़ज़ब है जुर्म भी मेरे ही सर होना
सभी तारीफ़ के पुल बाँधते थे, पर
उसे भाया था मेरा मुख़्तसर होना
सताये याद अक्सर घर की दफ़्तर में
डराये है मुझे दिनरात घर होना
पिता बिस्तर पड़ा है पर पिता तो है
बहुत है चूती छत भी मयस्सर होना
सुबह से इश्क़ उनको, प्यार शब् से है
मुझे यूं खल गया मिरा दोपहर होना
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