कि आंसू पर गुस्से की परत चढ़ाता हूँ
मैं आग से अक्सर पानी को बुझाता हूँ
जो एक नाव थी खाली, लगी किनारे पर
मुझे गुरूर था कश्ती तो मैं चलाता हूँ
दुआ सलाम हुई ख़त्म दोस्ती टूटी
तभी उसे अब बस दोस्त ही बताता हूँ
चला रहा हूँ मैं गोली, शिकारी से पहले
है बेख़बर इक पंछी, उसे जगाता हूँ
फ़क़ीर तख़्त के आगे क्या सिर झुकाऊँगा?
कि क्या सलाम में भी सिर कभी झुकाता हूँ?
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