कुम्हलाई सी सुफ़ेद धूप का कफ़न ओढ़े मरा-मरा ज़मीं पे पड़ा एक ठंडा जिस्म दिल की फांस, फंसी उम्मीद की आंच दिसम्बर की सुबह चराग़ सा बुझा-बुझा एक नंगा जिस्म ठंडी दुनिया से बचने के लिए ख़ुद को ऐसे सिकोड़ लेगा खुद में छुपी सूखी हुई धूप आख़िरी बूँद तक निचोड़ लेगा हर आने जाने वाला ताज्जुब से देख रहा है ‘एक मुर्दा कब्र के ऊपर धूप सेंक रहा है’ रुह बनके भूख जब आएगी इस मुर्दे को मौत से जगाएगी तब तलक इत्मीनान से इसे सोने दो...