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Showing posts from December, 2024
हैं ग़लत भी और जाना रूठ भी सच तभी तो लग रहा है झूठ भी बोझ कब माँ –बाप हैं औलाद पर घोंसला थामे खड़ा है ठूंठ भी खींचना ही टूटने की थी वजह इश्क़ चाहे है ज़रा सी छूट भी दे ज़हर उसने मुझे कुछ यूं कहा प्यास पर भारी है बस इक घूँट भी
सुनो! मैं बादलों के बादलों से लब लड़ाऊंगा यही ज़िद है कि अब आब से मैं आग पाऊंगा मुझे तुम छोड़ के जो जा रहे हो तो चलो जाओ करूंगा याद ना तुमको, मगर मैं याद आऊंगा थमाया हाथ उसके एकदिन शफ्फाक आईना मिरा वादा था उससे चांद हाथों पर-सजाऊंगा ज़रा देखूं कि अब भी याद आता हूं उसे मैं क्या कि अपनी मौत की अफवाह यारों मैं उड़ाऊंगा लड़ाऊं आंख से मैं आंख, वादा था मिरा उसको अजी पानी नहीं जानां, मैं मय में मय मिलाऊंगा बदन शीशे का तेरा और संगदिल भी तुही जानां तुझे तुझसे बचाऊं तो भला कैसे बचाऊंगा
सागर से उसको इश्क़ साहिल से नहीं मछली डरे हासिल से मुश्किल से नहीं उसके नगर का तौर है हमसे जुदा घर घर जुड़े हैं हाय दिल-दिल से नहीं सूरज निकलते ही बुझा डाला दिया है बस चमक से इश्क़ काबिल से नहीं वो इश्क़ तो करता है पर शादी नहीं मैं शौक़ से डरता हूँ क़ातिल से नहीं हो बेबसी तो माफ़ है हर इक ख़ता झूठों से डरता हूँ मैं बातिल से नहीं
वो बूढा घर के बाहर जिसे सुलाया गया उसी बूढ़े के पेंशन से किराया गया कि दहशतगर्द क्यों मुस्लिम ही होते हैं डरे मन को डरे जन से डराया गया उसे बरअक़्स, मेरे ही, किया सबने मुझी को मुझसे फिर यूं  आज़माया गया बड़ा है मतलबी जग, माँ जिसे बोला कि दसवें दिन उसी माँ को बहाया गया नहीं धुलता था पानी से किसी सूरत  लहू से उस लहू को फिर मिटाया गया छुआ कुम्हार  ने,  था जात का छोटा उसी के बने घड़े से  फिर  नहाया गया 
वही इक जो किसी की अब अमानत है मुहब्बत की वही मेरी ज़मानत है कभी थप्पड़ कभी छप्पर कभी साया पिता का हाथ सरपर हिफाज़त है भला हो आप बोले, आप बोले तो शिकायत भी अजी मुझपर इनायत है हमें अब आप रुख़सत दें, कहा हमने गले में बाँह डाला, कहा इजाज़त है उसे चाहो उसे लेकिन बताओ मत मुहब्बत में शराफत हो तो लानत है सभी को नाम से उसके बुलाता हूँ बुरा है ये, बुरी वो एक आदत है जिसे तुम कह रहे हो इक कहानी बस कहानी वो हमारी तो हक़ीक़त है मिले कैसे अगर मिलना भी चाहें हम चमन गंजा हुनर उसका हजामत है
लो शज़र को मैं जगाने लगा हूँ हवा को अब तूफ़ाँ बनाने लगा हूँ बूँद गुंजाइश रखे है नदी की ओस हूँ बादल बनाने लगा हूँ फिर हिला मुर्दा बदन जो सुना ये देख माँ मैं अब कमाने लगा हूँ दाग़ पानी से गया ही नहीं जब ख़ूँ से अब मैं ख़ूँ मिटाने लगा हूँ ज़ख्म मेरा देख न ले ज़माना आँख मैं भी अब दिखाने लगा हूँ हाय मैंने ही था दाना खिलाया जाल भी मैं ही बिछाने लगा हूँ
मिरा होगा फ़क़त तू सुन, हमारा तो नहीं होगा तुझे गर तू भी चाहे तो गंवारा तो नहीं होगा जिसे तुम दोस्त कहते हो, उसे तुम आज़माओ तो जहाँ डूबे वहाँ होगा, पुकारा तो नहीं होगा मुहब्बत का दुबारा, तजरबा, कुछ यूं हुआ यारों ग़लत थे हम हमें धोखा दुबारा तो नहीं होगा मिटाया है अभी उसने फ़क़त सिन्दूर माथे का अभी कंगन वो सोने का उतारा तो नहीं होगा अजी उसको तो मेरी बंद आँखें देख लेती हैं नज़र वालों, नज़र होगी, नज़ारा तो नहीं होगा
माना फूलों की ज़ुबाँ, तो वो क़तर जाएँगे शोर ख़ुशबू जो मचाये, तो किधर जाएँगे कश्मकश में है परिंदा, करे क्या आईंदा गर सुने पेट की, उसके फिर पर जायेंगे है बुलंदी भी नशा, याद सबक़ रखिये ज़रा जो चढ़ें सर पे, तो नज़रों से उतर जाएँगे अपने बेनूर को बेनूर ही रखना अब तो नाम सुन होश नहीं, देख के मर जाएँगे ऐ अमीरों! तुम घूमो लन्दन और पेरिस हम-से मुफलिस घर से निकले तो घर जायेंगे
बदन में जब नहीं ख़ू फिर भला ख़ू कैसे खांसा मैं कि मुफलिस बन, बना हूं देख जैसे इक तमाशा मैं रहे सावन बने सावन, कि सर पटके जहां साहिल मरा हूं उसी समंदर के किनारे हाय प्यासा मैं तलाशा तन तलाशा मन, जवानी और वो बचपन मिला लेकिन कहीं मैं ना, कि कितना भी तलाशा मैं मुझे शीरी वही तू थी, तुझे मीठा वही मैं था तू भेली एक गुड की और तेरा था बताशा मैं हंसे दुनिया कहे दुनिया अरे तू चीज है ही क्या कि तू पहचान मेरी थी कि था तेरा शनासा मैं दुखी तू भी थी मैं भी था घिरा सा इक हताशा में बनी हिम्मत मेरी तू और तेरा था दिलासा मैं जो था प्यासा, नदी खोजी, नदी खोदी, कई मैने मिले दरिया सदा मुझको सदा से हूं सो प्यासा मैं
ये हवा ख़ुशबू से यूँही ना सनी है फूल की इक फूल से जमके ठनी है उसकी थी आदत सहारा दे सभी को शाख टूटी टूटकर लाठी बनी है आम है बस स्वाद, पूजा में लगे है नीम ख़ारिज ही रहा, चाहे गुनी है दफ़न हैं मरकर इसी में इसके बच्चे ये ज़मीँ किस सख़्त पत्थर से बनी है
मिरा दिल तोड़ कर परिशान कितना है नए दिल में वफ़ा ईमान कितना है मुझे छोड़ा मुनाफा इश्क़ का पाया नफे में देख अब नुकसान कितना है वही जो बात पसंद थी, उसी से खफा वही हूं मैं तू तुझमें जान कितना है हवा में हो, कि उड़ते हो, दिखा दूंगा कटे पर में जुनूँ और जान  कितना है बना है आदमी पर आदमी बनकर तू दिल से पूछ अब इंसान कितना है गिरे जो आदमी जितना, उसी का अब मका उट्ठा वो आलीशान कितना है भरे हैं लोग हर कमरे में दिल के पर मका सूना सहन वीरान कितना है कहो सच फिर नहीं कुछ याद रखने का कि रट रट झूठ तू परिशान कितना है कहा कबतक बकोगे यूं; कहा मैने अजी बोतल में मेरी जान कितना है वही जो तोड़ता रहता है दिल मेरा लगा लूं दिल से उसे-अरमान कितना है है वो रोशन कि मेरी रोशनी है वो छुड़ाकर हाथ देखे सम्मान कितना है
दोस्ती की वो दुहाई दे रहे हैं दुश्मनों में भी दिखाई दे रहे हैं यार माँगी  ही नहीं है आपसे जब आप नाहक़ क्यूं सफाई दे रहे हैं दादियाँ स्वेटर बनाती आश्रम में पोतियों को बुनी बुनाई दे रहे हैं मिल गया तोता नया, छीना क़फ़स कहा हो मुबारक लो रिहाई दे रहे हैं राह पर ता-उम्र सोया मर गया कल अब पड़ोसी चारपाई दे रहे हैं पाठशाले में मिली थी बस पढ़ाई स्कूल में तो कोट टाई दे रहे हैं
दूर तक अपना ना पराया था ख़ुद मुक़ाबिल मेरा ही साया था चाय फीकी लगी मुझे फिर तो नाम उसका ज़बाँ पे आया था काम आयी न बाप की  दौलत बाप ने ना/म ही कमाया था ईंट के बदले फल दिया मुझको पेड़ पापा का ही लगाया था अश्क़ भारी पड़े मिरे सच पर झूठ फिर सच पे मुस्कुराया था कह रहा है, गले पड़े हो क्यूँ जब गिरा था, गले लगाया था
दर्द था जो आँख से वो बहा नहीं इस नदी में पानी अब तो बचा नहीं पैर ज़ख़्मी पर सलामत थे मगर हाय क्यूं इसबार पंछी उड़ा नहीं खेल है ये ज़िन्दगी और खेल वो खेलते हैं खेलने में मज़ा नहीं रात को सोता नहीं था शख्स जो सो गया तो फिर कभी वो जगा नहीं कुछ हो न हो, है खुदा, हूँ जानता पर ख़ुदा पर भी यक़ी अब रहा नहीं अब हवस है, या वफ़ा है तुम कहो आँख भर देखा मगर कभी छुआ नहीं
था आदमी आसेब से पहले मियाँ कुर्ता बना था जेब से पहले मियाँ आदम ने न्यूटन को सिखाया ये हुनर इंसा गिरे है सेब से पहले मियाँ वो आ रही इस सिम्त ही, उसकी चुगल ख़ुशबू करे पाजेब से पहले मियाँ
तीर आख़िर लगा निशाने पर था कबूतर सही ठिकाने पर हारते हम नहीं तो क्या करते गले लगता है वो हराने पर इश्क है इक चराग को सबा से खुदकुशी सर चढ़ी दिवाने पर इश्क है काम बस दिवानों का आप ठहरे मियां सयाने पर फूल से मारना तो तब समझे मर गए उसके जब लजाने पर ढेर होने लगे कई मानी बहर में शेर को बिठाने पर सीख जो खुद समझ नहीं पाया आ गया मुझको ही सिखाने पर मौत भी मेहबूब ही ठहरी कब है आई मिरे बुलाने पर ख़ुद को गिरवी ही रख दिया हमने एक बाज़ार के बुलाने पर घर को सर पर उठाये रखता था आज उट्ठा नहीं उठाने पर
दर्द की इंतिहा दर्द कम रह गया इश्क़ की इंतिहा इक सितम रह गया आज भी उसकी ही खाते हैँ सर की हम जो कभी था सनम बस क़सम रह गया वो यक़ी था मिरा यार का मैं यक़ी रह गया वो भरम, मैं वहम रहा गया रात को हाथ को छोड़कर वो चला हाथ में ल्म्स भर पर सनम रह गया आदमी आदमी से कटा से मरा बस ख़ुदा या ख़ुदा का भरम रह गया तोड़कर दम सनम हाथ में तेरे हम हाथ में साथ मैं दम ब दम रह गया चार दिन ज़िन्दगी कुछ रहेगा नहीं खेल था खेल का मोह कम रह गया
जला जंगल बहुत रोया कि साज़िश में लगी लकड़ी उसी की ही, थी माचिस में बदन के हिस्से आया ही नहीं साया बदन साया बना था किसके ख़ाहिश में कहा उसने अदा से यूं चले आओ नवाज़िश थी कि ख़ाहिश थी गुज़ारिश में दिखाया हुस्न उसने और इतना ही रखा प्यासा दिया झांसा है बारिश में हसीं वो थी जवाँ मैं था हुआ कुछ यूं अजी मौसम उतर आया सिफारिश में अकेले हम नहीं सजते दिखे जब वो सितारे चाँद सब हैं अब नुमाइश में गले हमको लगाकर वो कहा हमसे रिहाई तो नहीं है इस रिहाइश में
ख़ू नहीं इक बूंद इतना साफ मारे नाज मारे है कभी वो नाफ़ मारे देखकर उसको नशा सा कुछ हुआ यूं देखने वाले, लगे हैं हाफ मारे मुकदमा उसकी नज़र पर, क्यों लगे जब नज़र कब, ये तीर हमने, आप मारे ठंड में थे सब गरम, था हुस्न ऐसा ठंड में वो हुस्न, जिसका ताप मारे चांद टूटा टूट के हर सिम्ट बह रहा पैर नाज़ुक पानी पर वो थाप मारे फैसले के बाद होता मुकदमा है कत्ल से ज्यादा यहां इंसाफ मारे चुस्त तन पर चुस्त कपड़ा कत्ल करे है यार दर्जी हाय तेरी नाप मारे दोष दूं तो भी किसे दूं, दोष है मिरा आँख से थे जो बड़े वो ख़ाब मारे
जो यहाँ कुछ काटकर कुछ और लिखा है अनकहे में ही असल पैग़ाम छिपा है जो सुनूं उसको तो कोई और लगे है और जो देखूं तो कोई और दिखा है हैं अजी मशहूर इतने दोस्तों हम जो नहीं पहचानता, वो भी ख़फ़ा है दरम्यां जो गुफ्तगू का सिलसिला है बसकि मेरी ख़ामुशी से ही टिका है ले सके ना हम कभी भी नाम उसका रवि जिसने नाम बेटे का रखा है
किसी दिन गाँव को भी है नगर होना दवा की बदनसीबी है जहर होना चले दिनभर कहीं भी पर नहीं पहुंचे नहीं आसाँ घड़ी का हमसफ़र होना ग़ज़ब ये भी नहीं सर कट गया मेरा ग़ज़ब है जुर्म भी मेरे ही सर होना सभी तारीफ़ के पुल बाँधते थे, पर उसे भाया था मेरा मुख़्तसर होना सताये याद अक्सर घर की दफ़्तर में डराये है मुझे दिनरात घर होना पिता बिस्तर पड़ा है पर पिता तो है बहुत है चूती छत भी मयस्सर होना सुबह से इश्क़ उनको, प्यार शब् से है मुझे यूं खल गया मिरा दोपहर होना
कि पहली बार जिसने भी ठगा होगा लगा लो शर्त कोई वो सगा होगा हिमायत सच की जिसने की कभी होगी अजी इलज़ाम उसपर ही लगा होगा कड़ी है धूप वो तोड़े मगर पत्थर न जाने कैसी मिटटी का बना होगा तिरे ही नाम का खत लिख रहा हूँ मैं उसी खत पर मिरे घर का पता होगा अमॉ ये लोग हैं मजबूर आदत से वहीं मूतें जहाँ मूतना मना होगा
क़सम खाकर निभाओगे चलो जाओ मुझे अब क्या रुलाओगे चलो जाओ लहू से लिख रहे हो ख़त अभी तो तुम यही ख़त फिर जलाओगे चलो जाओ कभी सारा जहाँ मैं ही था तुम्हारा जहाँ से अब डराओगे चलो जाओ ढली अब शब दिये को कौन पूछेगा बुझाकर फिर जलाओगे चलो जाओ मुहब्बत को तिजारत तुम समझ बैठे क़फ़न में जेब पाओगे? चले जाओ
इस ज़मीं को ख़ुद में बसाने लगा है एक बच्चा अब मिटटी खाने लगा है भीड़ आयी कर तो गयी रेत घर को रेत से फिर वो घर बनाने लगा है ज़ात मज़हब में जग बँटे है, उसे क्या आटे में वो बेसन मिलाने लगा है पाक - भारत लो हमसफ़र बन गए, अब नाव नक़्शे के वो चलाने लगा है जग म से मज़हब ही पढ़ाता है सबको वो म से मौहब्बत पढ़ाने लगा है क़र्ज़ वालिद का अब उतारेगा सारा पेड़ पैसों के वो लगाने लगा है ना नज़र लगा दे इल्म, मासूमियत को फ़िक्र अब ये हमको सताने लगा है
कि आंसू पर गुस्से की परत चढ़ाता हूँ मैं आग से अक्सर पानी को बुझाता हूँ जो एक नाव थी खाली, लगी किनारे पर मुझे गुरूर था कश्ती तो मैं चलाता हूँ दुआ सलाम हुई ख़त्म दोस्ती टूटी तभी उसे अब बस दोस्त ही बताता हूँ चला रहा हूँ मैं गोली, शिकारी से पहले है बेख़बर इक पंछी, उसे जगाता हूँ फ़क़ीर तख़्त के आगे क्या सिर झुकाऊँगा? कि क्या सलाम में भी सिर कभी झुकाता हूँ?
  अकेले आ ! न लश्कर साथ लाने का तरीका बस यही है मुझे हराने का   मुख़ालिफ़ है लहर कोई , मुक़ाबिल बन किसी के अश्क़ हों तो डूब जाने का   बनी है इम्तिहाँ अब ज़िंदगी उसकी जिसे था शौक़ सबको आज़माने का   ज़हीनों से बहस कर शौक़ से लेकिन गधों से सुन , तुरत ही हार जाने का