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जिस बूढ़े को घर के बाहर सुलाया जा रहा है
उसके पेंशन से ही घर का किराया जा रहा है

हर आतंकवादी मुसलमान ही क्यों होता है
रे हुये को डरे हुये से डराया जा रहा है

तुझे फिर बेघर करने की चल रही है साज़िश
राम तेरे मस्जिद को मंदिर बताया जा रहा है

किसी की गोली नहीं, उसे तो भूखमरी मारेगी
क्यों एक भूखे को सिपाही बनाया जा रहा है

इस क़दर तन्हा हूँ, कि तन्हाई भी साथ नहीं
धूप के साथ ही मुझसे दूर साया जा रहा है

मेरे दुश्मनों ने उसे खड़ा कर दिया मेरे ख़िलाफ़
कि मेरे ख़िलाफ़ मुझे ही आज़माया जा रहा है





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हैं ग़लत भी और जाना रूठ भी सच तभी तो लग रहा है झूठ भी बोझ कब माँ –बाप हैं औलाद पर घोंसला थामे खड़ा है ठूंठ भी खींचना ही टूटने की थी वजह इश्क़ चाहे है ज़रा सी छूट भी दे ज़हर उसने मुझे कुछ यूं कहा प्यास पर भारी है बस इक घूँट भी
मेरी सूरत से वो इस क़दर डरता है. कि न आइना देखता है, न संवरता है. गवाह हैं उसके पलकों पे मेरे आंसू, वो अब भी याद मुझे करता है. दूर जाकर भी भाग नहीं सकता मुझसे, अक्सर अपने दिल में मुझे ढूँढा करता है. ख़ामोश कब रहा है वो मुझसे, तन्हाई में मुझसे ही बातें करता है. मेरी मौजूदगी का एहसास उसे पल पल है, बाहों में ख़ुद को यूँही नहीं भरता है. मेरे लम्स में लिपटे अपने हाथों में, चाँद सी सूरत को थामा करता है. जी लेगा वो मेरे बिन फ़कीर, सोचकर, कितनी बार वो मरता है.
मिरा होगा फ़क़त तू सुन, हमारा तो नहीं होगा तुझे गर तू भी चाहे तो गंवारा तो नहीं होगा जिसे तुम दोस्त कहते हो, उसे तुम आज़माओ तो जहाँ डूबे वहाँ होगा, पुकारा तो नहीं होगा मुहब्बत का दुबारा, तजरबा, कुछ यूं हुआ यारों ग़लत थे हम हमें धोखा दुबारा तो नहीं होगा मिटाया है अभी उसने फ़क़त सिन्दूर माथे का अभी कंगन वो सोने का उतारा तो नहीं होगा अजी उसको तो मेरी बंद आँखें देख लेती हैं नज़र वालों, नज़र होगी, नज़ारा तो नहीं होगा