जो था
कभी पोशीदा वो
पोशीदा फिर नहीं
रहा
जो था
ज़ाहिर वो फिर कभी ज़ाहिर
नहीं रहा
ये मंज़िलें
ही हैं सफर की सबसे
बड़ी अड़चन
मिली जो
मंज़िल तो मुसाफिर
मुसाफिर नहीं रहा
उसे ख़ुदा
की अज़मत पर यक़ीन नहीं
था कभी
तुझसे मिला
है जब से वो,
तो काफ़िर नहीं
रहा
इश्क़ है,
इश्क़ पाने में
खुद को खो देना
जनाज़े में
उठी अमृता, खबर
उडी साहिर नहीं
रहा
अब तो
जब जी चाहे छू लूं
उसे, आँखें मूंदकर
छुपने-छुपाने
के खेल में अब वो
माहिर नहीं रहा
तेरी बात
मान लेता तो बात खत्म
ही हो जाती
ग़ुफ़्तगू की चाहत में तुझसे
कभी मुत्तासिर नहीं
रहा
आ पैरों
में वक़्त बांध
के, मौत से ज़रा पहले
फिर न
कहना, फ़क़ीर अब मेरा मुन्तज़िर
नहीं रहा
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