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एक खोया क़स्बा.....



दूर... बहुत दूर है घर मेरा
इतनी दूर कि
ख़्वाबों के ज़रिये भी
वहां पहुँचने में
दिनों लग जाते हैं.....

दरअसल ख़्वाब ही
मेहमान सरीखे
कभी कभार ही आते हैं......

नींद की मेहरबानी है.
या यूं कहिये कि
मनमानी हैं.

ख़ैर,
घर से चार छलांग लगाते ही
एक पुराना सा मंदिर है.

अभी दूरी बढ़ गयी हो
तो पता नहीं.

बचपन में लेकिन
इससे ज्यादा वक़्त
कभी लगा नहीं.

मंदिर के अन्दर कई बूत हैं.
बूतों में लोग
ख़ुदा ढूंढतें हैं.

और ख़ुदा.....
दिन - दिन भर
मंदिर के अन्दर - बाहर

खेलते कूदतें हैं.
प्रसाद लूटतें हैं.

पास ही एक तालाब है.
जिसके ठहरे शीशे में
आसमान अपना चेहरा सजाता है.

कभी सिर पर सूरज,
कभी चाँद लगाता है.

रातों को हमने कई दफ़ा
मिटटी के ढेलों से
चाँद तोडा है.....
रेजा - रेजा करके छोड़ा है.

टूटकर वो
लहरों के साथ
दूर दूर तक बिखर जाता था.

बड़ा ढीठ था
मौका मिलते ही
पानी के ठहरते ही
फिर जुड़कर......
खाने को दोमट मिटटी के पत्थर
चला आता था.

हमारी तरह शायद उसको भी
सौंधी खुशबू मिटटी की
बहुत भाती थी.

तालाब से दो हाथ की दूरी पर
बूढ़े बरगद का साया है.

सुना है
हमारे बाप - दादा का भी बोझ
उसी ने उठाया है.

स्कूल से छूटते ही
उससे मिलने ही तैयारी करते थे.
उसके मज़बूत कांधे की
रोज़ सवारी करते थे.

बड़ी जगह थी उसके
दिल - से डाल पे
सबको गले लगाता था.

मासूम फ़रिश्ते झूलते हैं इसलिए
कभी हज़ामत नहीं करवाता था.

अब घूम के देखता हूँ तो
किसी खोये गेंद की मानिंद
मेरा बचपन भी
खो गया है
तेरे पहलू में.

ढूंढता रहता हूँ,
मिलता ही नहीं.
चाहे कुछ भी कर लूं मैं.

तुझसे बिछड़कर ऐ मेरे क़स्बे
परेशान हो गया हूँ मैं.
अपना घर ही अपना नहीं रहा
मेहमान हो गया हूँ मैं.......

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