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उसने बेरुखी से कहा जब
‘तुम्हें जीना है अकेले’
एक वही तो भीड़ था, अब
छूटे जहाँ के मेले
उसके बिना है जीना
दुश्मन की बद्-दुआ है
उसके बिना है जीना
मुझे मौत की सज़ा है
उसके बिना है जीना
कि किस्तों में जान जाए
उसके बिना है जीना
मछली डूब मरी हाय
उसके बिना है जीना
है आतिश का इक समंदर
उसके बिना है जीना
बंधे-हाथ तैरना अन्दर
उसके बिना है जीना
पाँव में ज्यूं आबले हैं
उसके बिना है जीना
और मीलों के फासले हैं
उसके बिना है जीना
कि बदन कफ़न है ये
उसके बिना है जीना
ख़ुद में ही दफ़न है ये
उसने बेरुखी से कहा जब
‘इक खेल था जो हम खेले’
एक वही तो भीड़ था, अब
छूटे जहाँ के मेले

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हैं ग़लत भी और जाना रूठ भी सच तभी तो लग रहा है झूठ भी बोझ कब माँ –बाप हैं औलाद पर घोंसला थामे खड़ा है ठूंठ भी खींचना ही टूटने की थी वजह इश्क़ चाहे है ज़रा सी छूट भी दे ज़हर उसने मुझे कुछ यूं कहा प्यास पर भारी है बस इक घूँट भी
मेरी सूरत से वो इस क़दर डरता है. कि न आइना देखता है, न संवरता है. गवाह हैं उसके पलकों पे मेरे आंसू, वो अब भी याद मुझे करता है. दूर जाकर भी भाग नहीं सकता मुझसे, अक्सर अपने दिल में मुझे ढूँढा करता है. ख़ामोश कब रहा है वो मुझसे, तन्हाई में मुझसे ही बातें करता है. मेरी मौजूदगी का एहसास उसे पल पल है, बाहों में ख़ुद को यूँही नहीं भरता है. मेरे लम्स में लिपटे अपने हाथों में, चाँद सी सूरत को थामा करता है. जी लेगा वो मेरे बिन फ़कीर, सोचकर, कितनी बार वो मरता है.
मिरा होगा फ़क़त तू सुन, हमारा तो नहीं होगा तुझे गर तू भी चाहे तो गंवारा तो नहीं होगा जिसे तुम दोस्त कहते हो, उसे तुम आज़माओ तो जहाँ डूबे वहाँ होगा, पुकारा तो नहीं होगा मुहब्बत का दुबारा, तजरबा, कुछ यूं हुआ यारों ग़लत थे हम हमें धोखा दुबारा तो नहीं होगा मिटाया है अभी उसने फ़क़त सिन्दूर माथे का अभी कंगन वो सोने का उतारा तो नहीं होगा अजी उसको तो मेरी बंद आँखें देख लेती हैं नज़र वालों, नज़र होगी, नज़ारा तो नहीं होगा