पीछे-पीछे सचमुच ही चाँद हमारे साथ चले?
एक ही जगह पर या, हम ही सारी रात चले?
ज़ख़्मी है गुफ्तगू भी, तराशे-पैने लफ़्ज़ों से
ख़ामोशी के लहजे में अब कोई बात चले
बड़े लोगों की दुनिया भी, अलग ही कोई दुनिया है
जनाज़े भी निकले यूं, जैसे कोई बारात चले
परछाईं सी है बदहाली, घटती-बढ़ती रहती है
मेरे क़दमों से उलझे, ये मेरे हालात चले
ढूंढ रहे हैं पत्थर में, जो ख़ुदा की गुंजाईश
कितने सुरीले लय में, बुतकारों के हाथ चले
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