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भिखारी:



कुम्हलाई सी
सुफ़ेद धूप का कफ़न ओढ़े
मरा-मरा 
ज़मीं पे पड़ा
एक ठंडा जिस्म
दिल की फांस,
फंसी उम्मीद की आंच
दिसम्बर की सुबह
चराग़ सा बुझा-बुझा
एक नंगा जिस्म
ठंडी दुनिया से बचने के लिए
ख़ुद को ऐसे सिकोड़ लेगा
खुद में छुपी सूखी हुई धूप
आख़िरी बूँद तक निचोड़ लेगा
हर आने जाने वाला
ताज्जुब से देख रहा है
‘एक मुर्दा कब्र के ऊपर
धूप सेंक रहा है’
रुह बनके भूख
जब आएगी
इस मुर्दे को
मौत से जगाएगी
तब तलक इत्मीनान से इसे सोने दो...

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हैं ग़लत भी और जाना रूठ भी सच तभी तो लग रहा है झूठ भी बोझ कब माँ –बाप हैं औलाद पर घोंसला थामे खड़ा है ठूंठ भी खींचना ही टूटने की थी वजह इश्क़ चाहे है ज़रा सी छूट भी दे ज़हर उसने मुझे कुछ यूं कहा प्यास पर भारी है बस इक घूँट भी
मेरी सूरत से वो इस क़दर डरता है. कि न आइना देखता है, न संवरता है. गवाह हैं उसके पलकों पे मेरे आंसू, वो अब भी याद मुझे करता है. दूर जाकर भी भाग नहीं सकता मुझसे, अक्सर अपने दिल में मुझे ढूँढा करता है. ख़ामोश कब रहा है वो मुझसे, तन्हाई में मुझसे ही बातें करता है. मेरी मौजूदगी का एहसास उसे पल पल है, बाहों में ख़ुद को यूँही नहीं भरता है. मेरे लम्स में लिपटे अपने हाथों में, चाँद सी सूरत को थामा करता है. जी लेगा वो मेरे बिन फ़कीर, सोचकर, कितनी बार वो मरता है.
मिरा होगा फ़क़त तू सुन, हमारा तो नहीं होगा तुझे गर तू भी चाहे तो गंवारा तो नहीं होगा जिसे तुम दोस्त कहते हो, उसे तुम आज़माओ तो जहाँ डूबे वहाँ होगा, पुकारा तो नहीं होगा मुहब्बत का दुबारा, तजरबा, कुछ यूं हुआ यारों ग़लत थे हम हमें धोखा दुबारा तो नहीं होगा मिटाया है अभी उसने फ़क़त सिन्दूर माथे का अभी कंगन वो सोने का उतारा तो नहीं होगा अजी उसको तो मेरी बंद आँखें देख लेती हैं नज़र वालों, नज़र होगी, नज़ारा तो नहीं होगा