वो जो एक
दरख्त था
जिसकी मीठी
छांव ओढ़कर
एक तन्हा
तीखी दोपहर
साथ साथ
देखते रहे
डाल-डाल
चढ़ते हुए
ख्वाबों
को पाते बुलंदियां
सर झुकाए
आज भी
याद करता
है तुम्हें…
तुम्हें
याद हो कि न याद हो.
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वो जो एक
झील थी
जिसके ठहरे
शीशे में कभी
हम देखते
थे आईना
पानी के
ऊपर थी बनी
तस्वीर इक
तिरी-मिरी
रात थाली
सी सजी
परोसती थी
जो पूनम का चाँद
कल-कल जो
जुबां में
याद करती
है तुम्हें…
तुम्हें
याद हो कि न याद हो.
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हवेली की
वो बूढ़ी सी छत
तन्हा सी
अकेली सी छत
छुपा लेती
थी हमें
हिफाज़त के
आग़ोश में
सीढ़ियां
बताती थी जिसकी
आ रहा है
इधर कोई
वो सीढ़ियां
कब से खामोश हैं
बस याद करके
इक तुम्हें
तुम्हें
याद हो कि न याद हो
-FAQEER
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