Skip to main content

दो चराग़ थे

दो चराग़ थे
ज़िन्दगी-सी अँधेरी रात में
दो चराग़ थे

शब-दर-शब जलते रहते
मचलते रहते
बूँद-दर-बूँद
पिघलते रहते

सर पर लौ सवार थी
और बदन था अपने ही
काले साये के घेरे में

ख़ुद से ही टकरा जाते दोनों
उस घुप्प सियाह अँधेरे में

जब भी अँधेरा खंगालते
ख़ुद  को ही खोते
ख़ुद को ही पाते

अंधे हाथों के हाथ
लगती थी सिर्फ़ तन्हाई

रूह तलक फैली
जिस्म से भी लम्बी
अपनी ही परछाई

फिर किसी दिन
किसी ने
रख दिया उन्हें
एक-दूसरे की ज़द में

पल भर में ही
जिस्म रोशन हो गए
दोनों चराग एक-दूसरे के
दरपन  हो गए

पहला चराग़ दूसरे को
अपने रोशन बाहों  में
भरने लगा

कान के क़रीब जाकर
मोम से मुलायम लहजे में
कहने लगा

"अब देखो चराग़ तले 
अँधेरा नहीं है
सब तुमसे है 
मुझमें कुछ मेरा नहीं है"


Comments

Popular posts from this blog

मेरी सूरत से वो इस क़दर डरता है. कि न आइना देखता है, न संवरता है. गवाह हैं उसके पलकों पे मेरे आंसू, वो अब भी याद मुझे करता है. दूर जाकर भी भाग नहीं सकता मुझसे, अक्सर अपने दिल में मुझे ढूँढा करता है. ख़ामोश कब रहा है वो मुझसे, तन्हाई में मुझसे ही बातें करता है. मेरी मौजूदगी का एहसास उसे पल पल है, बाहों में ख़ुद को यूँही नहीं भरता है. मेरे लम्स में लिपटे अपने हाथों में, चाँद सी सूरत को थामा करता है. जी लेगा वो मेरे बिन फ़कीर, सोचकर, कितनी बार वो मरता है.

मदारी

अरे! हे मदारी! रे मदारी! रे मदारी! हो! तेरा पिटारा, है जग सारा, दुनियादारी हो तेरे इशारे का सम्मान करें ख़ुद हनुमान तुम मांगो भीख तेरे कब्ज़े में भगवान ईश का करतब इंसान और ईश इंसानी कलाकारी हो   हे मदारी! रे मदारी! रे मदारी! हो! आस्तीन सा एक पिटारा सांप हम जै सा तुम्हारा सर पटके बार बार विष उगलने को तैयार न ज़हर उगल आज मत बन रे समाज काटने- कटने की ये बीमारी हो हे मदारी! रे मदारी! रे मदारी! हो! तेरे जमूरे- आधे अधूरे भूखे - नंगे , हर हर गंगे हाथसफाई के उस्ताद पर लगे कुछ न हाथ जीने के लिए जान लगाएं ज़ख्म से ज़्यादा कुछ न पाएं हवा खाएं साएं – साएं बचपन के सर चढ़ गयी ज़िम्मेदारी हो हे मदारी! रे मदारी! रे मदारी! हो!
हैं ग़लत भी और जाना रूठ भी सच तभी तो लग रहा है झूठ भी बोझ कब माँ –बाप हैं औलाद पर घोंसला थामे खड़ा है ठूंठ भी खींचना ही टूटने की थी वजह इश्क़ चाहे है ज़रा सी छूट भी दे ज़हर उसने मुझे कुछ यूं कहा प्यास पर भारी है बस इक घूँट भी