वो जो
एक दरख्त था
जिसकी
मीठी छांव ओढ़कर
एक तन्हा
तीखी दोपहर
साथ देखते
रहे
डाल -
डाल चढ़ते हुए
ख़्वाबों
को पाते बुलंदियां
सर झुकाये
आज भी
याद करता
है तुम्हें
तुम्हें
याद हो कि न याद हो ----------- 1.
वो जो
एक झील थी
जिसके
ठहरे शीशे में कभी
हम देखते
थे आईना
पानी के
ऊपर थी बनी
तस्वीर
इक तिरी-मिरी
रात को
थाली सी सजी
जो परोसती
थी पूनम का चाँद
कल-कल
की ज़ुबान में
पुकारती
रहती है तुम्हें
तुम्हें
याद हो कि न याद हो ----------- 2.
हवेली
की वो बूढी सी छत
बेवा सी
अकेली सी छत
छुपा लेती
थी हमें
हिफ़ाज़त
की आगोश में
सीढ़ियां
बताती थी जिसकी
आ रहा
है इधर कोई
वो सीढ़ियां
कब से ख़ामोश हैं
काश फिर
देख पाती तुम्हें
तुम्हें
याद हो कि न याद हो ----------- 3.
* दरख्त
– TREE **(मोमिन सा'ब का एक मिसरा उड़ाया है)
Comments
Post a Comment