तस्वीरों से फुरसत पाकर
यादों में मसरूफ़ हो गया....
हर बार की तरह
दिल ने चाहा
फिर लौट चलें
दोनों सिरे से बंद
उस गली में
जिसे कहते हैं माज़ी
मैं तो तैयार ही था
बस वक़्त ही
न हुआ राज़ी...
यादों से पाकर फुरसत
टेबल कैलेण्डर में मसरूफ़ हो गया...
उंगलियाँ परत-दर-परत
उसके बीते छिलके उतारने लगीं.
किसी वक़्त को खुद में जकड़े
कोई लाल स्याही
आवाज़ देकर रोक लेती थी.
फिर कोई यादों का पुलिंदा
खोल देती थी.
घडी भर उनकी सोहबत में रहकर
फिर सोचता था.
वक़्त लौटता क्यूँ नहीं.....
वो मासूम
माँ की उंगली छोड़ने की
गुस्ताख़ी कर गया क्या?
मेले की रौशनी में
चिराग़ कोई
बिछड़ गया क्या?
या किसी की मुश्त के
कफस में हो....
छूटना शायद उसके
न बस में हो....
फिर किसी ने बताया मुझको
गुज़ारा वक़्त
लौटकर नहीं आता कभी....
तो क्या
वक़्त गुज़र गया?
अपना वक़्त करके पूरा
वक़्त भी मर गया?
शायद हाँ....तभी तो
उसकी रूह भटकती है.
सताती है हमको
खुद भी तडपती है....
तभी तो बीते वक़्त की
धड़कने भी थम गयीं हैं.
टिक - टिक की आवाजें
खामोशियाँ ओढे जम गयीं हैं.
गर ऐसा है तो....
चलो उसकी रूह की ख़ातिर
अमन मांग ले....
और
कैलेण्डर के बीते पन्नो पर
एक माला टांग दें....
यादों में मसरूफ़ हो गया....
हर बार की तरह
दिल ने चाहा
फिर लौट चलें
दोनों सिरे से बंद
उस गली में
जिसे कहते हैं माज़ी
मैं तो तैयार ही था
बस वक़्त ही
न हुआ राज़ी...
यादों से पाकर फुरसत
टेबल कैलेण्डर में मसरूफ़ हो गया...
उंगलियाँ परत-दर-परत
उसके बीते छिलके उतारने लगीं.
किसी वक़्त को खुद में जकड़े
कोई लाल स्याही
आवाज़ देकर रोक लेती थी.
फिर कोई यादों का पुलिंदा
खोल देती थी.
घडी भर उनकी सोहबत में रहकर
फिर सोचता था.
वक़्त लौटता क्यूँ नहीं.....
वो मासूम
माँ की उंगली छोड़ने की
गुस्ताख़ी कर गया क्या?
मेले की रौशनी में
चिराग़ कोई
बिछड़ गया क्या?
या किसी की मुश्त के
कफस में हो....
छूटना शायद उसके
न बस में हो....
फिर किसी ने बताया मुझको
गुज़ारा वक़्त
लौटकर नहीं आता कभी....
तो क्या
वक़्त गुज़र गया?
अपना वक़्त करके पूरा
वक़्त भी मर गया?
शायद हाँ....तभी तो
उसकी रूह भटकती है.
सताती है हमको
खुद भी तडपती है....
तभी तो बीते वक़्त की
धड़कने भी थम गयीं हैं.
टिक - टिक की आवाजें
खामोशियाँ ओढे जम गयीं हैं.
गर ऐसा है तो....
चलो उसकी रूह की ख़ातिर
अमन मांग ले....
और
कैलेण्डर के बीते पन्नो पर
एक माला टांग दें....
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