आज सूरज का गुस्सा
अचानक मद्धम हो गया.
जेठ खुद -ब- खुद
सावन हो गया.
...
तुम्हारी खुली जुल्फें देखी
तो समझा जाना
यूं बेमौसम बादलों का
मेहमां बनके आना
सोचता हूँ कि
यूंही तुम खुली रखो जुल्फें
तो क्या हो?
बारिश की मेहरबानी
फिर तो हर जगह हो....
दरिया फिर
रेत की नागिन हो जाये
और रेगिस्तान
बेवा से
सुहागिन हो जाये.
फिर तो विरानियाँ बेज़ार हो जाएँगी....
मजदूरों - सा
शहर का रुख़ करने को तैयार हो जाएँगी....
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लफ्ज़ शबनम से
तेरे लबों की
पंखुड़ियों पे
लटकते हैं....
शर्मीले हैं तुम - से
लब
छोड़ते हुए
लरज़ते हैं...
सोचता हूँ कि
गर तुम्हारे लब
बोलने को तैयार हो जाएँ.....
फिर तो कानो में घुलने लगे शहद
शहद की मक्खियाँ
यूंही बेरोजगार हो जाएँ....
सोचता हूँ कि
गर तुम सीख जाओ
गुलाबी पलकें उठाना....
सारा शहर यूंही हो
जाये मवाली
फिर तो बर्बाद हो जाये
सारा मयखाना .......
इसलिए...
सोचता हूँ कि
लाजिम है तेरी ख़ामोशी
लाजिम है तेरा
शर्माना.....
सोचता हूँ कि तू
कोई खुली आँखों का ख़ाब है...
सोचता हूँ कि ख़ुदा भी तेरे लिए
इंसान बनाने को बेताब है....
सोचता हूँ चाँद जुगनू है
और तू माहताब है
सोचता हूँ कि
गुलज़ार की
तू कोई 'अन्पब्लिश' क़िताब है
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